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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1642
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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त्य꣡मु꣢ वः सत्रा꣣सा꣢हं꣣ वि꣡श्वा꣢सु गी꣣र्ष्वा꣡य꣢तम् । आ꣡ च्या꣢वयस्यू꣣त꣡ये꣢ ॥१६४२॥

स्वर सहित पद पाठ

त्य꣢म् । उ꣣ । वः । सत्रासा꣡ह꣢म् । स꣣त्रा । सा꣡ह꣢म् । वि꣡श्वा꣢꣯सु । गी꣣र्षु꣢ । आ꣡य꣢꣯तम् । आ । य꣣तम् । आ । च्या꣣वयसि । ऊत꣡ये꣢ ॥१६४२॥


स्वर रहित मन्त्र

त्यमु वः सत्रासाहं विश्वासु गीर्ष्वायतम् । आ च्यावयस्यूतये ॥१६४२॥


स्वर रहित पद पाठ

त्यम् । उ । वः । सत्रासाहम् । सत्रा । साहम् । विश्वासु । गीर्षु । आयतम् । आ । यतम् । आ । च्यावयसि । ऊतये ॥१६४२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1642
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे भाई ! तू (त्यम् उ) उसी (सत्रासाहम्) एक साथ सब विघ्नों को पराजित कर देनेवाले, (विश्वासु गीर्षु) सब वाङ्मयों में (आयतम्) व्याप्त परमात्मा वा जीवात्मा को (वः) वरण कर और (ऊतये) रक्षा के लिए (आच्यावयसि) अपनी ओर झुका ॥१॥

भावार्थ - जगदीश्वर सब वेद-वाणियों में व्याप्त है, क्योंकि श्रुति कहती है कि ‘जिसने उसे नहीं जाना, वह ऋचा से भला क्या लाभ उठा सकेगा (ऋ० १।१६४।३९)’। जीवात्मा का भी वेदादि वाणियाँ पद-पद पर वर्णन करती हैं। परमात्मा की शरण में जाकर और अपने अन्तरात्मा को भली-भाँति उद्बोधन देकर मनुष्य रक्षित तथा समुन्नत हो सकते हैं ॥१॥

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