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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1648
ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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न꣡म꣢स्ते अग्न꣣ ओ꣡ज꣢से गृ꣣ण꣡न्ति꣢ देव कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ । अ꣡मै꣢र꣣मि꣡त्र꣢मर्दय ॥१६४८॥

स्वर सहित पद पाठ

न꣡मः꣢꣯ । ते꣣ । अग्ने । ओ꣡ज꣢꣯से । गृ꣣ण꣡न्ति꣢ । दे꣣व । कृष्ट꣡यः꣢ । अ꣡मैः꣢꣯ । अ꣣मि꣡त्र꣢म् । अ꣣ । मि꣡त्र꣢꣯म् । अ꣣र्द꣡य ॥१६४८॥


स्वर रहित मन्त्र

नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टयः । अमैरमित्रमर्दय ॥१६४८॥


स्वर रहित पद पाठ

नमः । ते । अग्ने । ओजसे । गृणन्ति । देव । कृष्टयः । अमैः । अमित्रम् । अ । मित्रम् । अर्दय ॥१६४८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1648
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे (देव) दान आदि गुणों से युक्त (अग्ने) अग्रनायक परमात्मन्,राजन् वा योगिराज ! (ते ओजसे) तुम्हारे बल और प्रताप के लिए(कृष्टयः) मनुष्य (नमः गृणन्ति) नमस्कार करते हैं अर्थात् तुम्हारे बल और प्रताप की प्रशंसा करते हैं। तुम (अमैः) अपने बलों से(अमित्रम्) योग-मार्ग वा जीवन-मार्ग में आते हुए शत्रु को (अर्दय) पीड़ित कर डालो ॥१॥

भावार्थ - पग-पग पर हमारे निर्धारित लक्ष्य में जो विघ्न आते हैं, वे परमेश्वर की प्रेरणा से, राजा की सहायता से और योग-प्रशिक्षक के योग्य प्रशिक्षण से सरलतापूर्वक दूर किये जा सकते हैं ॥१॥

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