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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1653
ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ओ꣢ज꣣स्त꣡द꣢स्य तित्विष उ꣣भे꣢꣫ यत्स꣣म꣡व꣢र्तयत् । इ꣢न्द्र꣣श्च꣡र्मे꣢व꣣ रो꣡द꣢सी ॥१६५३॥

स्वर सहित पद पाठ

ओ꣡जः꣢꣯ । तत् । अ꣣स्य । तित्विषे । उभे꣡इति꣢ । यत् । स꣣म꣡व꣢र्तयत् । स꣣म् । अ꣡व꣢꣯र्तयत् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । च꣡र्म꣢꣯ । इ꣢व । रो꣡द꣢꣯सी꣢इ꣡ति꣢ ॥१६५३॥


स्वर रहित मन्त्र

ओजस्तदस्य तित्विष उभे यत्समवर्तयत् । इन्द्रश्चर्मेव रोदसी ॥१६५३॥


स्वर रहित पद पाठ

ओजः । तत् । अस्य । तित्विषे । उभेइति । यत् । समवर्तयत् । सम् । अवर्तयत् । इन्द्रः । चर्म । इव । रोदसीइति ॥१६५३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1653
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(यत्) जो (इन्द्रः) परमेश्वर ने (चर्म इव) सन्ध्या-वन्दन के लिए जैसे मृगचर्म कोई फैलाता है, वैसे ही (उभे रोदसी) दोनों द्यावापृथिवी के समान अपरा और परा नामक दोनों विद्याओं को (समवर्त्तयत्) फैलाया है, (तत्) वह (अस्य) इस परमेश्वर का (ओजः) ज्ञान-बल (तित्विषे) प्रदीप्त हो रहा है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थ - यह जगदीश्वर की महान् कृपा है कि वह सत्पात्र ऋषियों के हृदय में पराविद्या और अपरा विद्या के ज्ञान को द्यावापृथिवी के समान फैलाता है ॥३॥

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