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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1655
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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स꣡रू꣢प वृष꣣न्ना꣡ ग꣢ही꣣मौ꣢ भ꣣द्रौ꣡ धुर्या꣢꣯व꣣भि꣢ । ता꣢वि꣣मा꣡ उप꣢꣯ सर्पतः ॥१६५५

स्वर सहित पद पाठ

स꣡रू꣢꣯प । स । रू꣢प । वृषन् । आ꣢ । ग꣣हि । इ꣢मौ । भ꣣द्रौ꣢ । धु꣡र्यौ꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । तौ । इ꣣मौ꣢ । उ꣡प꣢꣯ । स꣣र्पतः ॥१६५५॥


स्वर रहित मन्त्र

सरूप वृषन्ना गहीमौ भद्रौ धुर्यावभि । ताविमा उप सर्पतः ॥१६५५


स्वर रहित पद पाठ

सरूप । स । रूप । वृषन् । आ । गहि । इमौ । भद्रौ । धुर्यौ । अभि । तौ । इमौ । उप । सर्पतः ॥१६५५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1655
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (सरूप) विविध रूपों से युक्त, (वृषन्) सुखों की वर्षा करनेवाले इन्द्र जगदीश्वर ! आप (इमौ) इन (भद्रौ) कल्याणकारी, (धुर्यौ) देह के धुरे को वहन करनेवाले आत्मा और मन के (अभि) प्रति (आगहि) आओ। (तौ इमौ) ये वे दोनों आत्मा और मन, (उपसर्पतः) आपके समीप पहुँच रहे हैं ॥२॥

भावार्थ - जगदुत्पादकत्व, जगद्धारकत्व, जगत्संहारकत्व, न्यायकारित्व, दयालुत्व, निराकारत्व, अजरत्व, अमरत्व, अभयत्व, पवित्रत्व आदि परमात्मा के अनेक रूप हैं, इसीलिए उसे ‘सरूप’ सम्बोधन किया गया है। स्तोता के आत्मा और मन जब स्वयं परमात्मा को पाने का यत्न करते हैं, तब वहीँ छिपा बैठा वह उनके लिए प्रकट हो जाता है ॥२॥

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