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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1661
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
वि꣣व्य꣡क्थ꣢ महि꣣ना꣡ वृ꣢षन्भ꣣क्ष꣡ꣳ सोम꣢꣯स्य जागृवे । य꣡ इ꣢न्द्र ज꣣ठ꣡रे꣢षु ते ॥१६६१॥
स्वर सहित पद पाठवि꣣व्य꣡क्थ꣢ । म꣣हिना꣢ । वृ꣣षन् । भक्ष꣢म् । सो꣡म꣢꣯स्य । जा꣣गृवे । यः꣢ । इ꣣न्द्र । जठ꣡रे꣢षु । ते꣣ ॥१६६१॥
स्वर रहित मन्त्र
विव्यक्थ महिना वृषन्भक्षꣳ सोमस्य जागृवे । य इन्द्र जठरेषु ते ॥१६६१॥
स्वर रहित पद पाठ
विव्यक्थ । महिना । वृषन् । भक्षम् । सोमस्य । जागृवे । यः । इन्द्र । जठरेषु । ते ॥१६६१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1661
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - अब जीवात्मा को उद्बोधन देते हैं।
पदार्थ -
हे (वृषन्) बलवान् (जागृवे) जागरूक (इन्द्र) जीवात्मन् ! तू(महिना) अपनी महिमा से (सोमस्य) ज्ञान-रस और आनन्द-रस के (भक्षम्) भाग को (विव्यक्थ) विस्तारित कर, (यः) जो भाग (ते) तेरे (जठरेषु) अन्दर है ॥२॥
भावार्थ - मनुष्य जिस भी ज्ञान वा आनन्द को सञ्चित करता है, उसका विस्तार उसे निरन्तर करते रहना चाहिए ॥२॥
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