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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1669
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - विष्णुः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
इ꣣दं꣢꣫ विष्णु꣣र्वि꣡ च꣢क्रमे त्रे꣣धा꣡ नि द꣢꣯धे प꣣द꣢म् । स꣡मू꣢ढमस्य पाꣳसु꣣ले꣢ ॥१६६९॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣द꣢म् । वि꣡ष्णुः꣢꣯ । वि । च꣣क्रमे । त्रेधा꣢ । नि । द꣣धे । पद꣢म् । स꣡मू꣢꣯ढम् । सम् । ऊ꣣ढम् । अस्य । पाꣳसुले꣢ ॥१६६९॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूढमस्य पाꣳसुले ॥१६६९॥
स्वर रहित पद पाठ
इदम् । विष्णुः । वि । चक्रमे । त्रेधा । नि । दधे । पदम् । समूढम् । सम् । ऊढम् । अस्य । पाꣳसुले ॥१६६९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1669
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २२२ क्रमाङ्क पर परमेश्वर और सूर्य के विषय में की जा चुकी है। यहाँ परमेश्वर का विषय कहा जा रहा है।
पदार्थ -
(विष्णुः) सर्वान्तर्यामी परमेश्वर (इदम्) इस ब्रह्माण्ड वा मानव-शरीर में (विचक्रमे) व्याप्त है। उसने (त्रेधा) तीन स्थानों में अर्थात् पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ में तथा शरीर के प्राण, मन और आत्मा में (पदम्) पग (निदधे) रखा हुआ है। तो भी (अस्य) इस परमेश्वर का वह पग (पांसुले) धूलि के ढेर में (समूढम्) छिपे हुए के समान है, अर्थात् चर्म- चक्षुओं से दिखाई नहीं देता है ॥१॥ यहाँ लुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ - यहाँ निराकार भी परमेश्वर में पग रखने का वर्णन गौण है। अभिप्राय यह है कि जैसे कोई देहधारी कदम भर कर भूमि के किसी प्रदेश को अपने अधीन कर लेता है, वैसे ही जगदीश्वर ने सारे ब्रह्माण्ड को और सारे मानवदेह को अपने अधीन किया हुआ है ॥१॥
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