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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 169
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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क꣡या꣢ नश्चि꣣त्र꣡ आ भु꣢꣯वदू꣣ती꣢ स꣣दा꣡वृ꣢धः꣣ स꣡खा꣢ । क꣢या꣣ श꣡चि꣢ष्ठया वृ꣣ता꣢ ॥१६९॥

स्वर सहित पद पाठ

क꣡या꣢꣯ । नः꣣ । चित्रः꣢ । आ । भु꣣वत् । ऊती꣢ । स꣣दा꣡वृ꣢धः । स꣣दा꣢ । वृ꣣धः । स꣣खा꣢꣯ । स । खा꣣ । क꣡या꣢꣯ । श꣡चि꣢꣯ष्ठया । वृ꣣ता꣢ ॥१६९॥


स्वर रहित मन्त्र

कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता ॥१६९॥


स्वर रहित पद पाठ

कया । नः । चित्रः । आ । भुवत् । ऊती । सदावृधः । सदा । वृधः । सखा । स । खा । कया । शचिष्ठया । वृता ॥१६९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 169
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(चित्रः) अद्भुत गुण-कर्म-स्वभाववाला वह इन्द्रनामक परमेश्वर और राजा (कया) कैसी अद्भुत (ऊती) रक्षा के द्वारा, और (कया) कैसी अद्भुत (शचिष्ठया) अतिशय बुद्धिपूर्ण (वृता) विद्यमान क्रिया के द्वारा (नः) हमारा (सदावृधः) सदा बढ़ानेवाला (सखा) सखा (आ भुवत्) बना हुआ है ॥५॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥५॥

भावार्थ - जैसे परमेश्वर अपनी विलक्षण रक्षा से और विलक्षण क्रियाशक्ति से सबकी रक्षा और उपकार करता है, वैसे ही राजा प्रजाजनों का रक्षण और उपकार करे ॥५॥

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