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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1711
ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣣ग्निः꣢ प्र꣣त्ने꣢न꣣ ज꣡न्म꣢ना꣣ शु꣡म्भा꣢नस्त꣣न्वा३ꣳ स्वा꣢म् । क꣣वि꣡र्विप्रे꣢꣯ण वावृधे ॥१७११॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ग्निः꣢ । प्र꣣त्ने꣡न꣢ । ज꣡न्म꣢꣯ना । शु꣡म्भा꣢꣯नः । त꣣न्व꣢म् । स्वाम् । क꣣विः꣢ । वि꣡प्रे꣢꣯ण । वि । प्रे꣣ण । वावृधे ॥१७११॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्निः प्रत्नेन जन्मना शुम्भानस्तन्वा३ꣳ स्वाम् । कविर्विप्रेण वावृधे ॥१७११॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्निः । प्रत्नेन । जन्मना । शुम्भानः । तन्वम् । स्वाम् । कविः । विप्रेण । वि । प्रेण । वावृधे ॥१७११॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1711
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(कविः) मेधावी, क्रान्तद्रष्टा जीवात्मा (प्रत्नेन जन्मना) पुरातन जन्म से अर्थात् पूर्व जन्म में किये हुए कर्मों के संस्कारवश (स्वाम्) अपने इस जन्म में प्राप्त (तन्वम्) शरीर को (शुम्भानः) सुशोभित करता हुआ (विप्रेण) विशेषतया ज्ञान से पूर्ण करनेवाले आचार्य के द्वारा (वावृधे) उन्नति प्राप्त करता है ॥१॥

भावार्थ - पूर्व जन्म में किये हुए कर्मों का फल भोगने के लिए और नवीन कर्म करने के लिए जीव मानव-जन्म प्राप्त करता है। माता के गर्भ से उत्पन्न होकर, माता-पिता से यथायोग्य पालित और शिक्षित हो, गुरुकुल में प्रवेश पाकर, आचार्य से विद्या ग्रहण कर, कर्तव्य-अकर्तव्य जान कर, सत्कर्म करके वह अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त कर सकता है ॥१॥

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