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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1728
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
ए꣣षो꣢ उ꣣षा꣡ अपू꣢꣯र्व्या꣣꣬ व्यु꣢꣯च्छति प्रि꣣या꣢ दि꣣वः꣢ । स्तु꣣षे꣡ वा꣢मश्विना बृ꣣ह꣢त् ॥१७२८॥
स्वर सहित पद पाठए꣣षा꣢ । उ꣣ । उषाः꣢ । अ꣡पू꣢꣯र्व्या । अ । पू꣣र्व्या । वि꣢ । उ꣣च्छति । प्रिया꣢ । दि꣣वः꣢ । स्तु꣣षे꣢ । वा꣣म् । अश्विना । बृह꣢त् ॥१७२८॥
स्वर रहित मन्त्र
एषो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिवः । स्तुषे वामश्विना बृहत् ॥१७२८॥
स्वर रहित पद पाठ
एषा । उ । उषाः । अपूर्व्या । अ । पूर्व्या । वि । उच्छति । प्रिया । दिवः । स्तुषे । वाम् । अश्विना । बृहत् ॥१७२८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1728
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में १७८ क्रमाङ्क पर पहले व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ ऋतम्भरा प्रज्ञा का वर्णन है।
पदार्थ -
(एषा उ) यह (अपूर्व्या) अपूर्व, (प्रिया) प्रिय (उषाः) प्रकाशमयी ऋतम्भरा प्रज्ञा (दिवः) देदीप्यमान आत्मलोक से (व्युच्छति) प्रकट हो रही है। हे (अश्विनौ) उस ऋतम्भरा प्रज्ञा से चमत्कृत मन और आत्मा ! मैं (वाम्) तुम दोनों की (बृहत्) बहुत अधिक (स्तुषे) स्तुति करता हूँ ॥१॥
भावार्थ - जब योगी के मानस आकाश में ऋतम्भरा प्रज्ञारूप दिव्य उषा प्रकट होती है, तब शरीर में स्थित आत्मा, मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय आदि सभी दिव्य ज्योति से प्रदीप्त हो जाते हैं ॥१॥
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