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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1765
ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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प्रा꣢स्य꣣ धा꣡रा꣢ अक्षर꣣न्वृ꣡ष्णः꣢ सु꣣त꣡स्यौज꣢꣯सः । दे꣣वा꣡ꣳ अनु꣢꣯ प्र꣣भू꣡ष꣢तः ॥१७६५॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । अ꣣स्य । धा꣡राः꣢꣯ । अ꣢क्षरन् । वृ꣡ष्णः꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सः । दे꣣वा꣢न् । अ꣡नु꣢꣯ । प्र꣣भू꣡षतः । प्र꣣ । भू꣡ष꣢꣯तः ॥१७६५॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रास्य धारा अक्षरन्वृष्णः सुतस्यौजसः । देवाꣳ अनु प्रभूषतः ॥१७६५॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । अस्य । धाराः । अक्षरन् । वृष्णः । सुतस्य । ओजसः । देवान् । अनु । प्रभूषतः । प्र । भूषतः ॥१७६५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1765
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(वृष्णः) मनोरथों को पूर्ण करनेवाले, (सुतस्य) प्रकट किये हुए, (ओजसः) ओजस्वी, (देवान्) विद्वान् उपासकों को (अनु) अनुकूलतापूर्वक (प्र भूषतः) दिव्य गुणों से अलंकृत करते हुए (अस्य) इस पवित्र करनेवाले रसागार परमात्मा की (धाराः) आनन्द-धाराएँ (प्र अक्षरन्) बरस रही हैं ॥१॥

भावार्थ - मेघ से पवित्र जल-धाराओं के समान रसमय परमेश्वर से जो पवित्र और पवित्रतादायिनी परमानन्द की धाराएँ बरसती हैं, उनमें सबको चाहिए कि वे अपने आत्मा को नहलाएँ ॥१॥

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