Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 178
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
9
ए꣣षो꣢ उ꣣षा꣡ अपू꣢꣯र्व्या꣣꣬ व्यु꣢꣯च्छति प्रि꣣या꣢ दि꣣वः꣢ । स्तु꣣षे꣡ वा꣢मश्विना बृ꣣ह꣢त् ॥१७८॥
स्वर सहित पद पाठए꣣षा꣢ । उ꣣ । उषाः꣢ । अ꣡पू꣢꣯र्व्या । अ । पू꣣र्व्या । वि꣢ । उ꣣च्छति । प्रिया꣢ । दि꣣वः꣢ । स्तु꣣षे꣢ । वा꣣म् । अश्विना । बृह꣢त् ॥१७८॥
स्वर रहित मन्त्र
एषो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिवः । स्तुषे वामश्विना बृहत् ॥१७८॥
स्वर रहित पद पाठ
एषा । उ । उषाः । अपूर्व्या । अ । पूर्व्या । वि । उच्छति । प्रिया । दिवः । स्तुषे । वाम् । अश्विना । बृहत् ॥१७८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 178
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
Acknowledgment
विषय - अगले मन्त्र में रात्रि के हट जाने पर छिटकी हुई उषा का वर्णन किया गया है।
पदार्थ -
(एषा उ) यह (अपूर्व्या) अपूर्व, (प्रिया) प्रिय (उषाः) उषा के समान प्रकाशमयी धर्म, विद्या आदि की ज्योति (दिवः) द्युतिमान् (इन्द्र) अर्थात् परमेश्वर, आचार्य या राजा के पास से उत्पन्न होकर (व्युच्छति) अधर्म, अज्ञान आदि रूप अन्धकार को विदीर्ण कर छिटक रही है। (अश्विना) हे प्राकृतिक उषा से प्रकाशित द्यावापृथिवी के समान धर्म, ज्ञान आदि से प्रकाशित स्त्री-पुरुषो ! मैं (वाम्) तुम्हारी (बृहत्) बहुत अधिक (स्तुषे) स्तुति करता हूँ ॥४॥
भावार्थ - पहले मन्त्र में रात्रि को दूर करने की प्रार्थना की गयी थी। सौभाग्य से उस हृदय-व्यापिनी राष्ट्रव्यापिनी और विश्वव्यापिनी अधर्मरूपिणी या अविद्यारूपिणी रात्रि को हटाकर दिव्य प्रकाशमयी धर्मरूपिणी या विद्यारूपिणी उषा प्रकट हो गयी है। जैसे प्राकृतिक उषा के प्रादुर्भाव से द्यावापृथिवी प्रकाश से भर जाते हैं, वैसे ही इस, विद्या, सच्चरित्रता, आध्यात्मिकता आदि की ज्योति से परिपूर्ण दिव्य उषा के प्रकाश से स्त्री-पुरुष-रूप द्यावापृथिवी दिव्य दीप्ति से देदीप्यमान हो उठे हैं ॥४॥
इस भाष्य को एडिट करें