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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1782
ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
4
वि꣣धुं꣡ द꣢द्रा꣣ण꣡ꣳ सम꣢꣯ने बहू꣣नां꣢ युवा꣢꣯न꣣ꣳ स꣡न्तं꣢ पलि꣣तो꣡ ज꣢गार । दे꣣व꣡स्य꣢ पश्य꣣ का꣡व्यं꣢ महि꣣त्वा꣢꣫द्या म꣣मा꣢र꣣ स꣡ ह्यः समा꣢꣯न ॥१७८२॥
स्वर सहित पद पाठवि꣣धु꣢म् । वि꣢ । धु꣢म् । द꣣द्राण꣢म् । स꣡म꣢꣯ने । सम् । अ꣣ने । बहूना꣢म् । यु꣡वा꣢꣯नम् । स꣡न्त꣢꣯म् । प꣣लितः꣢ । ज꣣गार । देव꣡स्य꣢ । प꣣श्य । का꣡व्य꣢꣯म् । म꣣हित्वा꣢ । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । म꣣मा꣡र꣢ । सः । ह्यः । सम् । आ꣣न ॥१७८२॥
स्वर रहित मन्त्र
विधुं दद्राणꣳ समने बहूनां युवानꣳ सन्तं पलितो जगार । देवस्य पश्य काव्यं महित्वाद्या ममार स ह्यः समान ॥१७८२॥
स्वर रहित पद पाठ
विधुम् । वि । धुम् । दद्राणम् । समने । सम् । अने । बहूनाम् । युवानम् । सन्तम् । पलितः । जगार । देवस्य । पश्य । काव्यम् । महित्वा । अद्य । अ । द्य । ममार । सः । ह्यः । सम् । आन ॥१७८२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1782
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३२५ क्रमाङ्क पर चन्द्र-सूर्य और मन-आत्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ दूसरी व्याख्या दर्शाते हैं।
पदार्थ -
(समने) सङ्ग्राम में (बहूनाम्) अनेक शत्रुओं को (विधुम्) बींधनेवाले, (दद्राणम्) उनकी दुर्गति करनेवाले (युवानं सन्तम्) युवा होते भी किसी वीर को (पलितः) बूढ़ा काल (जगार) निगल लेता है। (देवस्य) क्रीडा करनेवाले जगत्पति इन्द्र परमेश्वर के (महित्वा) महान् (काव्यम्) जगत्-रूप दृश्य काव्य को (पश्य) देखो, कि (सः) वह (अद्य) आज (ममार) मरा पड़ा है (यः) जो (ह्यः) कल (समान) भली-भाँति साँस ले रहा था, जीवित था ॥१॥
भावार्थ - बड़ी भारी शक्ति जिनके पास होती है, वे भी मृत्यु के मुख में जाने से नहीं बच पाते, यह देखकर धर्म-कर्मों में और परमात्मा के चिन्तन में मन लगाना चाहिए ॥१॥
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