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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1807
ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
4
ए꣡न्द्र꣢ याहि꣣ ह꣡रि꣢भि꣣रु꣢प꣣ क꣡ण्व꣢स्य सुष्टु꣣ति꣢म् । दि꣣वो꣢ अ꣣मु꣢ष्य꣣ शा꣡स꣢तो꣣ दि꣡वं꣢ य꣣य꣡ दि꣢वावसो ॥१८०७॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । इ꣣न्द्र । याहि । ह꣡रि꣢꣯भिः । उ꣡प꣢꣯ । क꣡ण्व꣢꣯स्य । सु꣣ष्टुति꣢म् । सु꣣ । स्तुति꣢म् । दि꣣वः꣢ । अ꣣मु꣡ष्य꣢ । शा꣡स꣢꣯तः । दि꣡व꣢꣯म् । य꣣य꣢ । दि꣣वावसो । दिवा । वसो ॥१८०७॥
स्वर रहित मन्त्र
एन्द्र याहि हरिभिरुप कण्वस्य सुष्टुतिम् । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥१८०७॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । इन्द्र । याहि । हरिभिः । उप । कण्वस्य । सुष्टुतिम् । सु । स्तुतिम् । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो । दिवा । वसो ॥१८०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1807
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ३४८ क्रमाङ्क पर व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ उपासक जगदीश्वर को पुकार रहा है।
पदार्थ -
हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! आप (हरिभिः) आनन्द-रसों के साथ (कण्वस्य) मेधावी उपासक की (सुष्टुतिम्) उत्कृष्ट स्तुति में (उप-आयाहि) आओ। हे (दिवावसो) दीप्तिधन जगदीश ! (दिवः) तेजोमयी देह-रूप अयोध्या पुरी के (शासतः) शासक (अमुष्य) इस मेधावी उपासक की (दिवम्) तेजोमयी देह-पुरी में, आप (यय) पहुँचो ॥१॥
भावार्थ - जैसे परमेश्वर ब्रह्माण्ड का शासक है, वैसे ही जीवात्मा देह का शासक है। वह चक्रवर्त्ती सम्राट् जगदीश्वर स्तोता की देहपुरी में आकर आतिथ्य स्वीकार करे ॥१॥
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