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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1862
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रो मरुतो वा छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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प्रे꣢ता꣣ ज꣡य꣢ता नर꣣ इ꣡न्द्रो꣢ वः꣣ श꣡र्म꣢ यच्छतु । उ꣣ग्रा꣡ वः꣢ सन्तु बा꣣ह꣡वो꣢ऽनाधृ꣣ष्या꣡ यथास꣢꣯थ ॥१८६२॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । इ꣣त । ज꣡य꣢꣯त । न꣣रः । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । वः꣣ । श꣡र्म꣢꣯ । य꣣च्छतु । उग्राः꣢ । वः꣣ । सन्तु । बाह꣡वः꣢ । अ꣣नाधृष्याः꣢ । अ꣣न् । आधृष्याः꣢ । य꣡था꣢꣯ । अ꣡स꣢꣯थ ॥१८६२॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रेता जयता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छतु । उग्रा वः सन्तु बाहवोऽनाधृष्या यथासथ ॥१८६२॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । इत । जयत । नरः । इन्द्रः । वः । शर्म । यच्छतु । उग्राः । वः । सन्तु । बाहवः । अनाधृष्याः । अन् । आधृष्याः । यथा । असथ ॥१८६२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1862
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (नरः) वीर-पुङ्गव योद्धाओ ! (प्रेत) आगे बढ़ो, (जयत) विजय पाओ। (इन्द्रः) तुम्हारा वीर अन्तरात्मा (वः) तुम्हें (शर्म) कल्याण (यच्छतु) प्रदान करे। (वः) तुम्हारी (बाहवः) भुजाएँ (उग्राः) उग्र (सन्तु) हों, (यथा) जिससे, तुम (अनाधृष्याः) अपराजेय (असथ) हो जाओ ॥२॥ इस मन्त्र में वीर रस है ॥२॥

भावार्थ - मनुष्यों को उद्बोधन तभी मिल सकता है यदि उनका आत्मा बलवान् हो। इसलिए अपने आत्मा को बली बनाकर, उद्बोधन पाकर जीवन-सङ्ग्राम में सबको विजय प्राप्त करनी चाहिए ॥२॥

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