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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 188
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣या꣢ धि꣣या꣡ च꣢ गव्य꣣या꣡ पु꣢꣯रुणामन्पुरुष्टुत । य꣡त्सोमे꣢꣯सोम꣣ आ꣡भु꣢वः ॥१८८॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣या꣢ । धि꣣या꣢ । च꣣ । गव्यया꣢ । पु꣡रु꣢꣯णामन् । पु꣡रु꣢꣯ । ना꣣मन् । पुरुष्टुत । पुरु । स्तुत । य꣢त् । सो꣡मे꣢꣯सोमे । सो꣡मे꣢꣯ । सो꣣मे । आ꣡भु꣢꣯वः । आ꣣ । अ꣡भु꣢꣯वः ॥१८८॥


स्वर रहित मन्त्र

अया धिया च गव्यया पुरुणामन्पुरुष्टुत । यत्सोमेसोम आभुवः ॥१८८॥


स्वर रहित पद पाठ

अया । धिया । च । गव्यया । पुरुणामन् । पुरु । नामन् । पुरुष्टुत । पुरु । स्तुत । यत् । सोमेसोमे । सोमे । सोमे । आभुवः । आ । अभुवः ॥१८८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 188
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 8;
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पदार्थ -
हे (पुरुणामन्) सर्वान्तर्यामिन् एवं वेदों में शक्र, वृत्रहा, मघवान्, शचीपति आदि अनेक नामों से वर्णित, (पुरुष्टुत) बहुस्तुत इन्द्र परमात्मन् ! (अया) इस (गव्यया) आत्मा-रूप सूर्य की किरणों को पाने की कामनावाली (धिया) बुद्धि तथा ध्यान-शृङ्खला से (च) ही, यह संभव है (यत्) कि, आप (सोमेसोमे) हमारे प्राण-प्राण में, प्रत्येक श्वास में (आभुवः) व्याप्त हो जाओ ॥४॥

भावार्थ - यदि हम तमोगुण से ढकी हुई आत्मसूर्य की किरणों को निश्चयात्मक बुद्धि और ध्यान से पुनः पाने का यत्न करें, तभी यह संभव है कि परमेश्वर हमारे प्राण-प्राण में, श्वास-श्वास में और रोम-रोम में व्याप्त हो जाए ॥४॥

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