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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 214
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣢ व꣣ इ꣢न्द्रं꣣ कृ꣢विं꣣ य꣡था꣢ वाज꣣य꣡न्तः꣢ श꣣त꣡क्र꣢तुम् । म꣡ꣳहि꣢ष्ठꣳ सिञ्च꣣ इ꣡न्दु꣢भिः ॥२१४॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । वः꣣ । इ꣢न्द्र꣢꣯म् । कृ꣡वि꣢꣯म् । य꣡था꣢꣯ । वा꣣जय꣡न्तः꣢ । श꣣त꣡क्र꣢तुम् । श꣣त꣢ । क्र꣣तुम् । मँ꣡हि꣢꣯ष्ठम् । सि꣣ञ्चे । इ꣡न्दु꣢꣯भिः । ॥२१४॥


स्वर रहित मन्त्र

आ व इन्द्रं कृविं यथा वाजयन्तः शतक्रतुम् । मꣳहिष्ठꣳ सिञ्च इन्दुभिः ॥२१४॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । वः । इन्द्रम् । कृविम् । यथा । वाजयन्तः । शतक्रतुम् । शत । क्रतुम् । मँहिष्ठम् । सिञ्चे । इन्दुभिः । ॥२१४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 214
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
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पदार्थ -
हे साथियो ! (वाजयन्तः) बल, विज्ञान या ऐश्वर्य की इच्छा करते हुए (वः) तुम लोग (शतक्रतुम्) बहुत ज्ञानी और बहुत से कर्मों को करनेवाले, (इन्द्रम्) परमात्मा को (इन्दुभिः) भक्तिरसों से (आ) आसिञ्चित करो। जैसे (वाजयन्तः) अन्नों की उत्पत्ति चाहनेवाले किसान लोग (कृविम्) कृत्रिम कुएँ को खेतों में सिंचाई करने के लिए (इन्दुभिः) जलों से भरते हैं, उसी प्रकार मैं भी (मंहिष्ठम्) अतिशय दानी, सबसे महान् और पूज्यतम उस परमात्मा को (इन्दुभिः) भक्तिरसों से (सिञ्चे) सींचता हूँ ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥९॥

भावार्थ - जो परमात्मा के साथ मित्रता करते हैं, वे सदा आनन्दित होते हैं ॥१॥

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