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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 220
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनो जमदग्निर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣡ नो꣢ मित्रावरुणा घृ꣣तै꣡र्गव्यू꣢꣯तिमुक्षतम् । म꣢ध्वा꣣ र꣡जा꣢ꣳसि सुक्रतू ॥२२०॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । नः꣣ । मित्रा । मि । त्रा । वरुणा । घृतैः꣢ । ग꣡व्यू꣢꣯तिम् । गो । यू꣣तिम् । उक्षतम् । म꣡ध्वा꣢꣯ । र꣡जाँ꣢꣯सि । सु꣣क्रतू । सु । क्रतूइ꣡ति꣢ ॥२२०॥


स्वर रहित मन्त्र

आ नो मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम् । मध्वा रजाꣳसि सुक्रतू ॥२२०॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । नः । मित्रा । मि । त्रा । वरुणा । घृतैः । गव्यूतिम् । गो । यूतिम् । उक्षतम् । मध्वा । रजाँसि । सुक्रतू । सु । क्रतूइति ॥२२०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 220
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
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पदार्थ -
इन्द्र परमात्मा और इन्द्र राजा के अधिष्ठातृत्व में चलनेवाले हे (मित्रावरुणौ) ब्राह्मण और क्षत्रियो ! तुम दोनों (नः) हमारी (गव्यूतिम्) राष्ट्रभूमि को (घृतैः) घृत आदि पदार्थों से (आ उक्षतम्) सींचो अर्थात् समृद्ध करो। हे (सुक्रतू) उत्तम ज्ञान और कर्म वालो ! तुम दोनों (मध्वा) विद्यामधु के साथ (रजांसि) क्षात्रतेजों को उत्पन्न करो ॥७॥

भावार्थ - परमात्मा से प्रेरणा और राजा से सहायता पाकर ब्राह्मण और क्षत्रिय राष्ट्र की प्रजाओं में समृद्धि, विद्या, वीरता और क्षात्रतेज को यदि उत्पन्न करते हैं, तो राष्ट्र परम उत्कर्ष को पा सकता है ॥७॥

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