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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 222
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - विष्णुः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣣दं꣢꣫ विष्णु꣣र्वि꣡ च꣢क्रमे त्रे꣣धा꣡ नि द꣢꣯धे प꣣द꣢म् । स꣡मू꣢ढमस्य पाꣳसु꣣ले꣡ ॥२२२॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣣द꣢म् । वि꣡ष्णुः꣢꣯ । वि । च꣣क्रमे । त्रेधा꣢ । नि । द꣣धे । पद꣢म् । स꣡मू꣢꣯ढम् । सम् । ऊढम् । अस्य । पासुले꣢ ॥२२२॥


स्वर रहित मन्त्र

इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूढमस्य पाꣳसुले ॥२२२॥


स्वर रहित पद पाठ

इदम् । विष्णुः । वि । चक्रमे । त्रेधा । नि । दधे । पदम् । समूढम् । सम् । ऊढम् । अस्य । पासुले ॥२२२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 222
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
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पदार्थ -
यहाँ मन्त्र का देवता इन्द्र है, अतः विष्णु इन्द्र का विशेषण समझना चाहिए। प्रथम—परमात्मा पक्ष में। (विष्णुः) चराचर जगत् में व्याप्त होनेवाला परमेश्वर (इदम्) इस सब जगत् में (वि चक्रमे) व्यापक है। (त्रेधा) तीन प्रकार से—अर्थात् उत्पादक, धारक और विनाशक इन तीन रूपों में उस जगत् में वह (पदम्) अपने पैर को अर्थात् अपनी सत्ता को (निधदे) रखे हुए है। किन्तु (अस्य) इस परमेश्वर का, वह पैर अर्थात् अस्तित्व (पांसुले) पाञ्चभौतिक इस जगत् में (समूढम्) छिपा हुआ है, चर्म-चक्षुओं से अगोचर है। जैसे धूलिवाले प्रदेश में (समूढम्) छिपा हुआ (पदम्) किसी का पैर दिखाई नहीं देता है, यह यहाँ ध्वनि निकल रही है ॥ द्वितीय—सूर्य के पक्ष में। (विष्णुः) अपने प्रकाश से सबको व्याप्त करनेवाला सूर्य (इदम्) इस सब ग्रहोपग्रह-चक्र में (विचक्रमे) अपने किरणरूप चरणों को रखे हुए है। (त्रेधा) भूगर्भ, भूतल और आकाश इन तीनों स्थानों पर, उसने (पदम्) अपने किरणसमूह-रूप पैर को (निधदे) रखा हुआ है। किन्तु (पांसुले) धूलिमय भूगर्भ में (अस्य) इस सूर्य का किरणरूप पैर (समूढम्) तर्कणा-गम्य ही है, प्रत्यक्ष नहीं है ॥९॥ यहाँ श्लेषालङ्कार और उपमाध्वनि है ॥९॥

भावार्थ - विष्णु सूर्य अपनी किरणों से व्याप्त होकर सब ग्रहोपग्रहों को प्रकाशित करता है। सूर्य के ही ताप से ओषधि, वनस्पति आदि पकती हैं। सूर्य यद्यपि तीनों स्थानों पर अपने किरण-रूप पैर रखे हुए है, तो भी उसकी किरणें पृथ्वीतल पर और आकाश में ही प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती हैं, भूगर्भ में भी पहुँचकर कैसे वे मिट्टी के कणों को लोहे, ताँबे, सोने आदि के रूप में परिणत कर देती हैं, यह सबकी आँखें नहीं देख सकतीं, अपितु भूगर्भवेत्ता वैज्ञानिक लोग ही इस रहस्य को जानते हैं। वैसे ही विष्णु परमेश्वर ने अपनी सत्ता से ब्रह्माण्ड को व्याप्त किया हुआ है। वह सब पदार्थों को सृष्टि के आरम्भ में पैदा करता है, पैदा करके धारण करता है और प्रलयकाल में उनका संहार कर देता है। यह तीन रूपोंवाला उसका कार्य तीन प्रकार से पैर रखने के रूप में वर्णन किया गया है। यद्यपि वह सभी जगह अपना पैर रखे हुए है, तो भी जैसे किसी का धूल में छिपा हुआ पैर नहीं दीखता है, वैसे ही उसका सर्वत्र विद्यमान स्वरूप भी दृष्टिगोचर नहीं होता है ॥९॥ इस दशति में इन्द्र के गुणवर्णनपूर्वक उसका आह्वान करने के कारण, उसके सहायक मित्र, वरुण और अर्यमा के नेतृत्व की याचना के कारण और मित्रावरुण, मरुत् तथा विष्णु के गुणकर्मों का कीर्तन करने के कारण इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥ तृतीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में ग्यारहवाँ खण्ड समाप्त ॥

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