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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 232
ऋषिः - श्रुतकक्ष आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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ए꣣वा꣡ ह्यसि꣢꣯ वीर꣣यु꣢रे꣣वा꣡ शूर꣢꣯ उ꣣त꣢ स्थि꣣रः꣢ । ए꣣वा꣢ ते꣣ रा꣢ध्यं꣣ म꣡नः꣢ ॥२३२॥

स्वर सहित पद पाठ

ए꣣व꣢ । हि । अ꣡सि꣢꣯ । वी꣣रयुः꣢ । ए꣣व꣢ । शू꣣रः꣢ । उ꣣त꣢ । स्थि꣣रः꣢ । ए꣣व꣢ । ते꣣ । रा꣡ध्य꣢꣯म् । म꣡नः꣢꣯ ॥२३२॥


स्वर रहित मन्त्र

एवा ह्यसि वीरयुरेवा शूर उत स्थिरः । एवा ते राध्यं मनः ॥२३२॥


स्वर रहित पद पाठ

एव । हि । असि । वीरयुः । एव । शूरः । उत । स्थिरः । एव । ते । राध्यम् । मनः ॥२३२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 232
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
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पदार्थ -
हे इन्द्र परमात्मन् अथवा राजन् ! (एव हि) सचमुच, आप (वीरयुः) वीरों को चाहनेवाले (असि) हैं। (एव) सचमुच, आप (शूरः) शूरवीर (उत) और (स्थिरः) अविचल हैं। (एव) सचमुच ही (ते) आपका (मनः) मन (राध्यम्) सत्कर्मों आदि द्वारा अनुकूल किये जा सकने योग्य है ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१०॥

भावार्थ - जैसे परमेश्वर स्वयं वीर, सुस्थिर और किसी से जीता न जा सकनेवाला होकर संसार में वीरों की ही कामना करता है, ड़रपोकों की नहीं, वैसा ही राजा भी हो ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र को सोमपान के लिए निमन्त्रित करने, उसके सखित्व का महत्त्व वर्णन करने, उससे बल की याचना करने, शूर आदि के रूप में उसकी स्तुति करने तथा इन्द्र शब्द से आचार्य, राजा आदि के भी चरित्र का वर्णन करने के कारण इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ तृतीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में बारहवाँ खण्ड समाप्त ॥ यह द्वितीय अध्याय समाप्त हुआ ॥

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