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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 243
ऋषिः - पुरुहन्मा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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न꣢ कि꣣ष्टं꣡ कर्म꣢꣯णा नश꣣द्य꣢श्च꣣का꣡र꣢ स꣣दा꣡वृ꣢धम् । इ꣢न्द्रं꣣ न꣢ य꣣ज्ञै꣢र्वि꣣श्व꣡गू꣢र्त꣣मृ꣡भ्व꣢स꣣म꣡धृ꣢ष्टं धृ꣣ष्णु꣡मोज꣢꣯सा ॥२४३॥

स्वर सहित पद पाठ

नः꣢ । किः꣣ । तम्꣢ । क꣡र्म꣢꣯णा । न꣣शत् । यः꣢ । च꣣का꣡र꣢ । स꣣दा꣡वृ꣢धम् । स꣣दा꣢ । वृ꣣धम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । न । य꣣ज्ञैः꣢ । र्वि꣣श्व꣡गू꣢र्तम् । वि꣣श्व꣢ । गू꣣र्तम् । ऋ꣡भ्व꣢꣯सम् । अ꣡धृ꣢꣯ष्टम् । अ । धृ꣣ष्टम् । धृष्णु꣢म् । ओ꣡ज꣢꣯सा ॥२४३॥


स्वर रहित मन्त्र

न किष्टं कर्मणा नशद्यश्चकार सदावृधम् । इन्द्रं न यज्ञैर्विश्वगूर्तमृभ्वसमधृष्टं धृष्णुमोजसा ॥२४३॥


स्वर रहित पद पाठ

नः । किः । तम् । कर्मणा । नशत् । यः । चकार । सदावृधम् । सदा । वृधम् । इन्द्रम् । न । यज्ञैः । र्विश्वगूर्तम् । विश्व । गूर्तम् । ऋभ्वसम् । अधृष्टम् । अ । धृष्टम् । धृष्णुम् । ओजसा ॥२४३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 243
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
(यः) जो मनुष्य (चकार) महत्त्वपूर्ण कर्मों को करता है, वह भी (तम्) उस प्रसिद्ध (सदावृधम्) सदा बढ़ानेवाले, (विश्वगूर्तम्) सबसे स्तुति किये जानेवाले, (ऋभ्वसम्) बहुत विशाल अर्थात् सर्वव्यापक, सूर्य-किरणों को चन्द्रादिलोकों में भेजनेवाले, (अधृष्टम्) किसी से पराजित न होनेवाले, और (ओजसा) अपने बल से (धृष्णुम्) कामादि शत्रुओं को परास्त करनेवाले, (इन्द्रम्) परमेश्वर की (नकिः) न तो (कर्मणा) वीरतापूर्ण कर्म में, (न) न ही (यज्ञैः) परोपकार आदि यज्ञों में (नशत्) बराबरी कर सकता है ॥१॥

भावार्थ - संसार में परमेश्वर के जो वीरतापूर्ण कार्य और परोपकार के कार्य हैं, उनमें उसकी बराबरी का या उससे अधिक न कोई उत्पन्न हुआ है, न भविष्य में उत्पन्न होगा ॥१॥

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