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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 270
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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त꣡वेदि꣢꣯न्द्राव꣣मं꣢꣫ वसु꣣ त्वं꣡ पु꣢ष्यसि मध्य꣣म꣢म् । स꣣त्रा꣢ विश्व꣢꣯स्य पर꣣म꣡स्य꣢ राजसि꣣ न꣡ कि꣢ष्ट्वा꣣ गो꣡षु꣢ वृण्वते ॥२७०॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣡व꣢꣯ । इत् । इ꣣न्द्र । अवम꣢म् । व꣡सु꣢ । त्वम् । पु꣣ष्यसि । मध्यम꣢म् । स꣣त्रा꣢ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । प꣣रम꣡स्य꣢ । रा꣣जसि । न꣢ । किः꣢ । त्वा । गो꣡षु꣢꣯ । वृ꣣ण्वते ॥२७०॥


स्वर रहित मन्त्र

तवेदिन्द्रावमं वसु त्वं पुष्यसि मध्यमम् । सत्रा विश्वस्य परमस्य राजसि न किष्ट्वा गोषु वृण्वते ॥२७०॥


स्वर रहित पद पाठ

तव । इत् । इन्द्र । अवमम् । वसु । त्वम् । पुष्यसि । मध्यमम् । सत्रा । विश्वस्य । परमस्य । राजसि । न । किः । त्वा । गोषु । वृण्वते ॥२७०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 270
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर ! (अवमम्) निचला अर्थात् पृथिवी अथवा शरीर में स्थित (वसु) धन (तव इत्) तेरा ही है। (त्वम्) तू ही (मध्यमम्) मध्यलोक अन्तरिक्ष में अथवा मनरूपी लोक में विद्यमान धन को (पुष्यसि) परिपुष्ट करता है। (सत्रा) सचमुच ही तू (विश्वस्य) सब (परमस्य) उच्च द्यौलोक में अथवा आत्मलोक में विद्यमान धन का भी (राजसि) राजा है। (त्वा) तुझे (गोषु) पृथिवी आदि लोकों में अथवा गाय आदि धनों के दानों में (न किः) कोई भी नहीं (वृण्वते) रोक सकते हैं ॥८॥

भावार्थ - निचले भूलोक में जो चाँदी, सोना, मणि, मोती, हीरे, कन्द, फल, रस, गाय, घोड़े, सन्तान, आदि ऐश्वर्य है, बीच के अन्तरिक्षलोक में जो बिजली, बादल, ग्रह, चन्द्रमा आदि ऐश्वर्य है, और उच्च द्युलोक में जो सूर्यकिरण, तारामण्डल आदि धन है, उस सबका परमेश्वर ही राजा है। उसी प्रकार हमारे अध्यात्म-जगत् में स्थूल शरीर का त्वचा, हड्डी, मज्जा, वीर्य, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय आदि जो धन है, बीच के मनोलोक का जो मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार रूप धन है, और परम लोक आत्मा का जो ज्ञान आदि ऐश्वर्य है, उसका भी परमेश्वर ही शासक और पोषक है। उस परमेश्वर की पृथिवी आदि लोकों में कहीं भी गति रोकी नहीं जा सकती। वह अपने ऐश्वर्य में से जो कुछ भी गाय आदि धन जिस किसी को भी देना चाहता है, उसके उस दान में भी कोई विघ्न नहीं डाल सकता है ॥८॥

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