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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 301
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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यु꣣ङ्क्ष्वा꣡ हि वृ꣢꣯त्रहन्तम꣣ ह꣡री꣢ इन्द्र परा꣣व꣡तः꣢ । अ꣣र्वाचीनो꣡ म꣢घव꣣न्त्सो꣡म꣢पीतय उ꣣ग्र꣢ ऋ꣣ष्वे꣢भि꣣रा꣡ ग꣢हि ॥३०१॥

स्वर सहित पद पाठ

यु꣣ङ्क्ष्व꣢ । हि । वृ꣣त्रहन्तम । वृत्र । हन्तम । ह꣢रीइ꣡ति꣢ । इ꣣न्द्र । पराव꣡तः꣢ । अ꣣र्वाचीनः꣢ । अ꣣र्वा । अचीनः꣢ । म꣣घवन् । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये । उग्रः꣢ । ऋ꣣ष्वे꣡भिः꣢ । आ । ग꣣हि ॥३०१॥


स्वर रहित मन्त्र

युङ्क्ष्वा हि वृत्रहन्तम हरी इन्द्र परावतः । अर्वाचीनो मघवन्त्सोमपीतय उग्र ऋष्वेभिरा गहि ॥३०१॥


स्वर रहित पद पाठ

युङ्क्ष्व । हि । वृत्रहन्तम । वृत्र । हन्तम । हरीइति । इन्द्र । परावतः । अर्वाचीनः । अर्वा । अचीनः । मघवन् । सोमपीतये । सोम । पीतये । उग्रः । ऋष्वेभिः । आ । गहि ॥३०१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 301
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
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पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (वृत्रहन्तम) पापरूप वृत्रासुरों का अतिशय वध करनेवाले (इन्द्र) परमात्मन् ! (परावतः) अपने परम स्वरूप में स्थित होकर आप (हरी) हमारे ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रियरूप घोड़ों को (युङ्क्ष्व हि) कार्य में प्रवृत्त कीजिए, अर्थात् हमें ज्ञानवान् और कर्मवान् बनाइए। (उग्रः) तीक्ष्ण बलवाले आप (अर्वाचीनः) हमारे अभिमुख होते हुए (सोमपीतये) हमारे आत्मा के रक्षणार्थ (ऋष्वेभिः) महान्, वीरता, दया, उदारता आदि गुणों के साथ अर्थात् हमारे लिए उनका उपहार लेकर (आगहि) आइए ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। राष्ट्र में शत्रु का संकट आ जाने पर प्रजा द्वारा सेनाध्यक्ष को सैनिकों के साथ बुलाया जा रहा है। हे (वृत्रहन्तम) शत्रुओं का अत्यधिक संहार करनेवाले (इन्द्र) सेनाध्यक्ष ! आप (परावतः) अपने उत्कृष्ट सैन्यावास से (हरी) संकटों को हरनेवाले अपने आक्रामक और रक्षक दोनों सेना-दलों को (युङ्क्ष्व हि) शत्रुओं के उच्छेद और राष्ट्र के रक्षण के लिए नियुक्त कीजिए। हे (मघवन्) वीरतारूप धन के धनी ! (उग्रः) प्रचण्ड आप (सोमपीतये) शान्ति के रक्षणार्थ (ऋष्वेभिः) अपने महाबली सैनिकों के साथ (अर्वाचीनः) रणभूमि की ओर (आगहि) आइए ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥९॥

भावार्थ - देहधारी जीवात्मा के ज्ञान एवं पौरुष से रहित तथा पापग्रस्त हो जाने पर जैसे परमेश्वर का आह्वान श्रेयस्कर होता है, वैसे ही राष्ट्र जब शत्रुओं से आक्रान्त हो जाता है तब सेनाध्यक्ष का आह्वान श्रेयस्कर होता है ॥९॥

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