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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 308
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣡ध्व꣢र्यो द्रा꣣व꣢या꣣ त्व꣢꣫ꣳ सोम꣣मि꣡न्द्रः꣢ पिपासति । उ꣡पो꣢ नू꣣नं꣡ यु꣢युजे꣣ वृ꣡ष꣢णा꣣ ह꣢री꣣ आ꣡ च꣢ जगाम वृत्र꣣हा꣢ ॥३०८॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡ध्व꣢꣯र्यो । द्रा꣣व꣡य꣢ । त्वम् । सो꣡म꣢꣯म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । पि꣣पासति । उ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । नून꣢म् । यु꣣युजे । वृ꣡ष꣢꣯णा । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । आ । च꣣ । जगाम । वृत्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ ॥३०८॥


स्वर रहित मन्त्र

अध्वर्यो द्रावया त्वꣳ सोममिन्द्रः पिपासति । उपो नूनं युयुजे वृषणा हरी आ च जगाम वृत्रहा ॥३०८॥


स्वर रहित पद पाठ

अध्वर्यो । द्रावय । त्वम् । सोमम् । इन्द्रः । पिपासति । उप । उ । नूनम् । युयुजे । वृषणा । हरीइति । आ । च । जगाम । वृत्रहा । वृत्र । हा ॥३०८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 308
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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पदार्थ -
हे (अध्वर्यो) अध्यात्म-यज्ञ के अध्वर्यु मेरे मन ! (त्वम्) तू (सोमम्) शान्तरस को (आ द्रावय) चारों ओर से प्रवाहित कर, (इन्द्रः) आत्मा (पिपासति) उसका प्यासा है। (नूनम्) मानो, (वृत्रहा) शान्ति के बाधक अशान्त विचारों के हन्ता परमात्मा ने भी, तेरे अध्यात्म-यज्ञ में आने के लिए (वृषणा) बलवान् (हरी) वेग से ले जानेवाले घोड़ों को (उपो युयुजे) रथ में नियुक्त कर लिया है, और साथ ही साथ (आजगाम च) वह आ भी गया है ॥६॥ इस मन्त्र में उत्प्रेक्षालङ्कार है। ‘नूनम्’ शब्द उत्प्रेक्षावाचक है। कहा भी है—‘मन्ये, शङ्के, ध्रुवम्, प्रायः, नूनम्, इव आदि शब्द उत्प्रेक्षावाचक होते हैं।’ शरीररहित परमात्मा का रथ में घोड़ों को नियुक्त करना असंभव होने से ‘मानो घोड़ों को नियुक्त किया है’ इस रूप में उत्प्रेक्षा की गयी है। साथ ही ‘आत्मा शान्तिरस का प्यासा है’ इस कारण द्वारा शान्तरस-प्रवाह करने रूप कार्य का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलङ्कार भी है। इसके अतिरिक्त ‘घोड़ों को नियुक्त करते ही आ पहुँचा है’ इस प्रकार कारण-कार्य की एक-साथ प्रतीति होने से अतिशयोक्ति अलङ्कार भी है ॥६॥

भावार्थ - जीवात्मा को शान्तरस से तृप्त करने के लिए अपने मन को अध्वर्यु बनाकर सबको आन्तरिक शान्तियज्ञ का विस्तार करना चाहिए, क्योंकि शान्त आत्मा में ही परमात्मा का निवास होता है ॥६॥

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