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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 310
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣡दि꣢न्द्र꣣ या꣡व꣢त꣣स्त्व꣢मे꣣ता꣡व꣢द꣣ह꣡मीशी꣢꣯य । स्तो꣣ता꣢र꣣मि꣡द्द꣢धिषे रदावसो꣣ न꣡ पा꣢प꣣त्वा꣡य꣢ रꣳसिषम् ॥३१०॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । इ꣣न्द्र । या꣡व꣢꣯तः । त्वम् । ए꣣ता꣡व꣢त् । अ꣣ह꣢म् । ई꣡शी꣢꣯य । स्तो꣣ता꣡र꣢म् । इत् । द꣣धिषे । रदावसो꣣ । रद । वसो । न꣢ । पा꣣पत्वा꣡य꣢ । रं꣣ऽसिषम् ॥३१०॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्र यावतस्त्वमेतावदहमीशीय । स्तोतारमिद्दधिषे रदावसो न पापत्वाय रꣳसिषम् ॥३१०॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । इन्द्र । यावतः । त्वम् । एतावत् । अहम् । ईशीय । स्तोतारम् । इत् । दधिषे । रदावसो । रद । वसो । न । पापत्वाय । रंऽसिषम् ॥३१०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 310
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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विषय - अगले मन्त्र में यह वर्णित है कि धनस्वामियों को धन का व्यय कहाँ करना चाहिए।
पदार्थ -
हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (यत्) यदि (यावतः) जितने धन के (त्वम्) आप स्वामी हैं, (एतावत्) उतने धन का (अहम्) मैं (ईशीय) स्वामी हो जाऊँ, तो हे (रदावसो) पवित्रताकारक धनवाले, अथवा दानियों को वसानेवालेपरमात्मन् ! मैं (स्तोतारम्) आपके स्तोता, पुण्यकर्ता मनुष्य को (इत्) ही (दधिषे) धन-दान से धारण करूँ, (पापत्वाय) पाप के लिए कभी (न) नहीं (रंसिषम्) दान करूँ ॥८॥
भावार्थ - धन पाकर किसी को कंजूस नहीं होना चाहिए, किन्तु उस धन का यथायोग्य सत्पात्रों में दान करना चाहिए। पर पाप-कार्य के लिए कभी धन-दान नहीं करना चाहिए ॥८॥
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