Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 315
ऋषिः - गातुरात्रेयः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
8
अ꣡द꣢र्द꣣रु꣢त्स꣣म꣡सृ꣢जो꣣ वि꣢꣫ खानि꣣ त्व꣡म꣢र्ण꣣वा꣡न्ब꣢द्बधा꣣ना꣡ꣳ अ꣢रम्णाः । म꣣हा꣡न्त꣢मिन्द्र꣣ प꣡र्व꣢तं꣣ वि꣢꣫ यद्वः सृ꣣ज꣢꣫द्धा꣣रा अ꣢व꣣ य꣡द्दा꣢न꣣वा꣢न्हन् ॥३१५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡द꣢꣯र्दः । उ꣡त्स꣢꣯म् । उत् । स꣣म् । अ꣡सृ꣢꣯जः । वि । खा꣡नि꣢꣯ । त्वम् । अ꣣र्णवा꣢न् । ब꣣द्बधा꣣नान् । अ꣢रम्णाः । महा꣡न्त꣢म् । इ꣣न्द्र प꣡र्व꣢꣯तम् । वि । यत् । व꣡रिति꣢ । सृ꣣ज꣢त् । धा꣡राः꣢꣯ । अ꣡व꣢꣯ । यत् । दा꣣नवा꣢न् । ह꣣न् ॥३१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अदर्दरुत्समसृजो वि खानि त्वमर्णवान्बद्बधानाꣳ अरम्णाः । महान्तमिन्द्र पर्वतं वि यद्वः सृजद्धारा अव यद्दानवान्हन् ॥३१५॥
स्वर रहित पद पाठ
अदर्दः । उत्सम् । उत् । सम् । असृजः । वि । खानि । त्वम् । अर्णवान् । बद्बधानान् । अरम्णाः । महान्तम् । इन्द्र पर्वतम् । वि । यत् । वरिति । सृजत् । धाराः । अव । यत् । दानवान् । हन् ॥३१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 315
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
Acknowledgment
विषय - अगले मन्त्र में परमेश्वर के वर्षा आदि तथा मुक्तिप्रदानरूपी कार्य का वर्णन है।
पदार्थ -
प्रथम—हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (त्वम्) सकलसृष्टि के व्यवस्थापक आप, अपने द्वारा रचित सूर्य को साधन बनाकर (उत्सम्) जल के आधार बादल का (अदर्दः) विदारण करते हो, (खानि) उसके बन्द छिद्रों को (वि असृजः) खोल देते हो। (बद्बधानान्) न बरसनेवाले बादल में दृढ़ता से बँधे हुए (अर्णवान्) जल के पारावारों को (अरम्णाः) छोड़ देते हो। इस प्रकार वृष्टिकर्म के वर्णन के बाद पहाड़ों से जलधाराओं के प्रवाह का वर्णन है। (यत्) जब (महान्तम्) विशाल (पर्वतम्) बर्फ के पर्वत को (विवः) पिघला देते हो और (यत्) जब (दानवान्) जल-प्रवाह में बाधक शिलाखण्ड आदियों को (हन्) दूर करते हो, तब (धाराः) नदियों की धाराओं को (अव सृजत्) बहाते हो ॥ इससे राजा का विषय भी सूचित होता है। जैसे परमेश्वर वा सूर्य वृष्टि-प्रतिबन्धक मेघ को विदीर्ण कर उसमें रुकी हुई जलधाराओं को प्रवाहित करते हैं, वैसे ही राजा भी राष्ट्र की उन्नति में प्रतिबन्धक शत्रुओं को विदीर्ण कर उनसे अवरुद्ध ऐश्वर्य की धाराओं को प्रवाहित करे ॥ द्वितीय—हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (त्वम्) आप (उत्सम्) ज्ञान से रुके हुए स्रोत को (अदर्दः) खोल देते हो, (खानि) अन्तरात्मा से पराङ्मुख हुई बहिर्मुख इन्द्रियों को (वि-असृजः) बाह्य विषयों से पृथक् कर देते हो, (बद्बधानान्) आनन्दमय कोशों में रुके हुए (अर्णवान्) आनन्द के पारावारों को (अरम्णाः) मनोमय आदि कोशों में फव्वारे की तरह छोड़ देते हो। (यत्) जब, आप (महान्तम्) विशाल (पर्वतम्) योगमार्ग में विघ्नभूत व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य आदियों के पहाड़ को (विवः) विदीर्ण कर देते हो, और (यत्) जब (दानवान्) अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश रूप दानवों को (हन्) विनष्ट कर देते हो, तब (धाराः) कैवल्य प्राप्त करानेवाली धर्ममेघ समाधि की धाराओं को (अव सृजत्) प्रवाहित करते हो ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ - परमेश्वर जैसे वर्षा करना, नदियों को बहाना आदि प्राकृतिक कार्य सम्पन्न करता है, वैसे ही योगाभ्यासी मुमुक्षु मनुष्य के योगमार्ग में आये हुए विघ्नों का निवारण कर उसकी आत्मा में आनन्द की वृष्टि करके उसे मोक्ष भी प्रदान करता है ॥३॥
इस भाष्य को एडिट करें