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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 322
ऋषिः - सुहोत्रो भारद्वाजः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣡पू꣢र्व्या पुरु꣣त꣡मा꣢न्यस्मै म꣣हे꣢ वी꣣रा꣡य꣢ त꣣व꣡से꣢ तु꣣रा꣡य꣢ । वि꣣रप्शि꣡ने꣢ व꣣ज्रि꣢णे꣣ श꣡न्त꣢मानि꣣ व꣡चा꣢ꣳस्यस्मै꣣ स्थ꣡वि꣢राय तक्षुः ॥३२२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡पू꣢꣯र्व्या । अ । पू꣣र्व्या । पुरुत꣡मा꣢नि । अ꣣स्मै । महे꣢ । वी꣣रा꣡य꣢ । त꣣व꣡से꣢ । तु꣣रा꣡य꣢ । वि꣣रप्शि꣡ने । वि꣣ । रप्शि꣡ने꣢ । व꣣ज्रि꣡णे꣣ । श꣡न्त꣢꣯मानि । व꣡चां꣢꣯ऽसि । अ꣣स्मै । स्थ꣡वि꣢꣯राय । स्थ । वि꣣राय । तक्षुः ॥३२२॥
स्वर रहित मन्त्र
अपूर्व्या पुरुतमान्यस्मै महे वीराय तवसे तुराय । विरप्शिने वज्रिणे शन्तमानि वचाꣳस्यस्मै स्थविराय तक्षुः ॥३२२॥
स्वर रहित पद पाठ
अपूर्व्या । अ । पूर्व्या । पुरुतमानि । अस्मै । महे । वीराय । तवसे । तुराय । विरप्शिने । वि । रप्शिने । वज्रिणे । शन्तमानि । वचांऽसि । अस्मै । स्थविराय । स्थ । विराय । तक्षुः ॥३२२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 322
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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विषय - अगले मन्त्र में यह विषय है कि कैसे परमात्मा के लिए कौन लोग कैसे स्तुतिवचनों को कहें।
पदार्थ -
(अस्मै) इस (महे) महान् (वीराय) वीर अथवा कामादि शत्रुओं के प्रकम्पक, (तवसे) बलवान् (तुराय) शीघ्र कार्यों को करनेवाले इन्द्र परमेश्वर के लिए और (अस्मै) इस (विरप्शिने) विशेष रूप से वेदों के प्रवक्ता तथा विशेषरूप से स्तुतियोग्य, (वज्रिणे) वज्रधारी के समान दुष्टों को दण्ड देनेवाले, (स्थविराय) प्रवृद्धतम चिरन्तन पुराण पुरुष इन्द्र परमेश्वर के लिए, स्तोता जन (अपूर्व्या) अपूर्व (पुरुतमानि) बहुत सारे (शन्तमानि) अतिशय शान्तिदायक (वचांसि) स्तोत्रों को (तक्षुः) रचते या प्रयुक्त करते हैं ॥१०॥ इस मन्त्र में विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकर अलङ्कार है। ‘तमान्-तमानि’, ‘वीराय-विराय’ आदि में छेकानुप्रास और ‘राय’ की तीन बार आवृत्ति में तथा ‘वीर-विर-विरा’ में वृत्त्यनुप्रास है ॥१०॥
भावार्थ - पुराण पुरुष परमेश्वर सबसे अधिक महान् सबसे अधिक वीर, सबसे अधिक बली, सबसे अधिक शीघ्रकारी, सबसे अधिक स्तुतियोग्य, सबसे अधिक दुर्जनों का दण्डयिता, सबसे अधिक वयोवृद्ध, सबसे अधिक ज्ञानवृद्ध और सबसे अधिक प्राचीन है। वैदिक, स्वरचित और अन्य महाकवियों द्वारा रचित स्तोत्रों से उसकी पूजा सबको करनी चाहिए ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र को प्रबोधन देने, उसके गुण वर्णन करने, उसके द्वारा सृष्ट्युत्पत्ति आदि वर्णित करने, उसकी स्तुति करने तथा इन्द्र नाम से सूर्य, राजा, आचार्य आदि के कर्मों का वर्णन करने के कारण इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में प्रथम अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ तृतीय अध्याय में नवम खण्ड समाप्त ॥
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