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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 324
ऋषिः - द्युतानो मारुतः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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वृ꣣त्र꣡स्य꣢ त्वा श्व꣣स꣢था꣣दी꣡ष꣢माणा꣣ वि꣡श्वे꣢ दे꣣वा꣡ अ꣢जहु꣣र्ये꣡ सखा꣢꣯यः । म꣣रु꣡द्भि꣢रिन्द्र स꣣ख्यं꣡ ते꣢ अ꣣स्त्व꣢थे꣣मा꣢꣫ विश्वा꣣: पृ꣡त꣢ना जयासि ॥३२४॥
स्वर सहित पद पाठवृ꣣त्र꣡स्य꣢ । त्वा꣣ । श्वस꣡था꣢त् । ई꣡ष꣢꣯माणाः । वि꣡श्वे꣢꣯ । दे꣣वाः꣢ । अ꣣जहुः । ये꣢ । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । मरु꣡द्भिः꣢ । इ꣣न्द्र । सख्य꣢म् । स꣣ । ख्य꣢म् । ते꣣ । अस्तु । अ꣡थ꣢꣯ । इ꣣माः꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । पृ꣡त꣢꣯नाः । ज꣣यासि ॥३२४॥
स्वर रहित मन्त्र
वृत्रस्य त्वा श्वसथादीषमाणा विश्वे देवा अजहुर्ये सखायः । मरुद्भिरिन्द्र सख्यं ते अस्त्वथेमा विश्वा: पृतना जयासि ॥३२४॥
स्वर रहित पद पाठ
वृत्रस्य । त्वा । श्वसथात् । ईषमाणाः । विश्वे । देवाः । अजहुः । ये । सखायः । स । खायः । मरुद्भिः । इन्द्र । सख्यम् । स । ख्यम् । ते । अस्तु । अथ । इमाः । विश्वाः । पृतनाः । जयासि ॥३२४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 324
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
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विषय - अगले मन्त्र में यह विषय वर्णित है कि इन्द्र वृत्र की सेनाओं को कैसे जीते।
पदार्थ -
प्रथम—जीवात्मा के पक्ष में। आन्तरिक देवासुरसंग्राम में अपने आत्मा को, जिसका साथ सबने छोड़ दिया है, अकेला देखकर कोई कह रहा है—(वृत्रस्य) तमोगुण के प्रधान हो जाने से उत्पन्न कामक्रोधादिरूप वृत्रासु्र की (श्वसथात्) फुंकार से (ईषमाणाः) भयभीत हो पलायन करती हुई (विश्वे देवाः) सब चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों ने (त्वा) तुझ आत्मा को (अजहुः) अकेला छोड़ दिया है, (ये) जो इन्द्रियाँ (सखायः) पहले तेरी मित्र बनी हुई थीं। हे (इन्द्र) जीवात्मन् (मरुद्भिः) प्राणों के साथ (ते) तेरी (सख्यम्) मित्रता (अस्तु) हो, (अथ) उसके अनन्तर, तू (इमाः) इन (विश्वाः) सब (पृतनाः) काम-क्रोध आदि शत्रुओं की सेनाओं को (जयासि) जीत ले ॥ इस प्रसंग में वृत्रवध के आख्यान में ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि—इन्द्र और उसके साथी वृत्र को मारने की इच्छा से दौड़े। उसने जान लिया कि ये मुझे मारने के लिए दौड़ रहे हैं। उसने सोचा इन्हें डरा दूँ । यह सोचकर उसने उनकी ओर साँस छोड़ी, फुंकार मारी। उसकी साँस या फुंकार से भयभीत हो सब देव भाग खड़े हुए। केवल मरुतों ने इन्द्र को नहीं छोड़ा। ‘भगवन् प्रहार करो, मारो, वीरता दिखाओ’—इस प्रकार वाणी बोलते हुए वे उसके साथ उपस्थित रहे। ॠषि इसी अर्थ का दर्शन करता हुआ कह रहा है—वृत्रस्य त्वा श्वसथादीषमाणाः आदि। ऐ० ब्रा० ३।२०। यह आख्यान उक्त अर्थ को ही स्पष्ट करने के लिए है ॥ छान्दोग्य उपनिषद् की एक कथा भी इस मन्त्र के भाव को स्पष्ट करती है। वहाँ लिखा है-देव और असुरों में लड़ाई ठन गयी, दोनों प्रजापति के पुत्र थे। देव उद्गीथ को ले आये कि इससे इन्हें परास्त कर देंगे। उन्होंने नासिक्य (नासिका से आने-जानेवाले) प्राण को उद्गीथरूप में उपासा। असुरों ने उसे पाप से बींध दिया। इसी कारण नासिक्य प्राण से सुगन्धित और दुर्गन्धित दोनों प्रकार के पदार्थ सूँघता है, यतः यह पाप से बिंध चुका है। इसके बाद उन्होंने वाणी को उद्गीथरूप में उपासा। उसे भी असुरों ने पाप से बींध दिया। इसी कारण वाणी से सत्य और असत्य दोनों बोलता है, यतः यह पाप से बिंध चुकी है। इसके बाद उन्होंने आँख को उद्गीथरूप में उपासा। उसे भी असुरों ने पाप से बींध दिया। इसी कारण आँख से दर्शनीय और अदर्शनीय दोनों को देखता है। यतः यह पाप से बिंध चुकी है। फिर उन्होंने श्रोत्र को उद्गीथरूप में उपासा। उसे भी असुरों ने पाप से बींध दिया। इसी कारण श्रोत्र से श्रवणीय और अश्रवणीय दोनों सुनता है, यतः यह पाप से बिंध चुका है। तत्पश्चात् उन्होंने मन को उद्गीथरूप में उपासा। उसे भी असुरों ने पाप से बींध दिया। इसी कारण मन से उचित और अनुचित दोनों प्रकार के संकल्प करता है, यतः यह पाप से बिंध चुका है। तदनन्तर उन्होंने मुख्य प्राण को उद्गीथरूप में उपासा। असुर जब उसे भी बींधने के लिए झपटे तो वे उससे टकराकर ऐसे विध्वस्त हो गये, जैसे मिट्टी का ढेला पत्थर से टकराकर चूर-चूर हो जाता है। इस प्रकार जो मुख्य प्राण से साहचर्य कर लेता है उसके सब शत्रु ऐसे ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे मिट्टी का ढेला पत्थर से टकराकर चूर हो जाता है। इस कथा से स्पष्ट है कि चक्षु-श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ आत्मा की सच्ची सहायक नहीं हैं, मुख्य प्राण की ही सहायता से वह काम, क्रोधादि असुरों को परास्त करने में सफल हो सकता है ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। सग्रामों में जिसका प्रजाजनों ने साथ छोड़ दिया है, ऐसे अकेले पड़े हुए राजा को राजमन्त्री कह रहा है—(वृत्रस्य) अत्याचारी शत्रु के (श्वसथात्) विनाशक शस्त्रास्त्र-समूह से (ईषमाणाः) भयभीत हो भागते हुए (विश्वे देवाः) सब प्रजाजनों ने (त्वा) आपको (अजहुः) छोड़ दिया है, (ये) जो प्रजाजन, पहले जब युद्ध उपस्थित नहीं हुआ था तब (सखायः) आपके मित्र बने हुए थे। हे (इन्द्र) राजन् ! (मरुद्भिः) वीर क्षत्रिय योद्धाओं के साथ (ते) आपकी (सख्यम्) मित्रता (अस्तु) हो, (अथ) उसके पश्चात्, आप (इमाः) इन (विश्वाः) सब (पृतनाः) युद्ध करनेवाली शत्रु-सेनाओं को (जयासि) जीत लो ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ - युद्ध का समय उपस्थित होने पर युद्ध में निपुण शूरवीर क्षत्रिय योद्धा ही रिपुदल से मुठभेड़ कर सकते हैं। इसी प्रकार आन्तरिक देवासुर-संग्राम में प्राण आत्मा के सहायक बनते हैं ॥२॥
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