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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 343
ऋषिः - जेता माधुच्छन्दसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣢न्द्रं꣣ वि꣡श्वा꣢ अवीवृधन्त्समु꣣द्र꣡व्य꣢चसं꣣ गि꣡रः꣢ । र꣣थी꣡त꣢मꣳ र꣣थी꣢नां꣣ वा꣡जा꣢ना꣣ꣳ स꣡त्प꣢तिं꣣ प꣡ति꣢म् ॥३४३॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯म् । वि꣡श्वाः꣢ । अ꣣वीवृधन् । समुद्र꣡व्य꣢चसम् । स꣣मुद्र꣢ । व्य꣣चसम् । गि꣡रः꣢꣯ । र꣣थी꣡त꣢मम् । र꣣थी꣡नाम् । वा꣡जा꣢꣯नाम् । स꣡त्प꣢꣯तिम् । सत् । प꣣तिम् । प꣡ति꣢꣯म् ॥३४३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं विश्वा अवीवृधन्त्समुद्रव्यचसं गिरः । रथीतमꣳ रथीनां वाजानाꣳ सत्पतिं पतिम् ॥३४३॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रम् । विश्वाः । अवीवृधन् । समुद्रव्यचसम् । समुद्र । व्यचसम् । गिरः । रथीतमम् । रथीनाम् । वाजानाम् । सत्पतिम् । सत् । पतिम् । पतिम् ॥३४३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 343
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
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विषय - अगले मन्त्र में पुनः इन्द्र की महिमा का विषय वर्णित है।
पदार्थ -
प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। (विश्वाः) सब (गिरः) स्तुति-वाणियाँ वा वेद-वाणियाँ (समुद्र-व्यचसम्) सागर और अन्तरिक्ष के समान व्याप्तिवाले, (रथीनाम्) रथवालों में (रथीतमम्) सबसे बढ़कर रथवाले अर्थात् पृथिवी, सूर्य, चन्द्र आदि अनेक रथसदृश गतिशील लोकों के सर्वोच्च स्वामी, (वाजानाम्) सब बलों के (पतिम्) अधीश्वर, (सत्पतिम्) सज्जनों, सद्गुणों व सदाचारों के रक्षक (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् परमात्मा का (अवीवृधन्) वर्धन अर्थात् महिमागान द्वारा प्रचार-प्रसार करती हैं ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (विश्वाः) सब (गिरः) राष्ट्रवासी प्रजाजनों की वाणियाँ (समुद्रव्यचसम्) जलपोतों से सागर में और विमानों से अन्तरिक्ष में व्याप्त, (रथीनाम्) यान-स्वामियों में (रथीतमम्) भूयान, जलयान और विमानों के सबसे बड़े स्वामी, (वाजानाम्) दैहिक, मानसिक और आत्मिक बलों, अन्नों वा युद्धों के (पतिम्) अधीश्वर, (सत्पतिम्) सज्जनों वा सत्कर्मों के रक्षक (इन्द्रम्) शत्रुविदारक तथा सुखप्रद राजा को (अवीवृधन्) बढ़ायें, उत्साहित करें ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘रथी, रथी’ में लाटानुप्रास और ‘पतिम् पतिम्’ में यमक है ॥२॥
भावार्थ - सब वेदवाणियाँ और स्तोताओं की वाणियाँ परमेश्वर की ही महिमा का गान करती हैं। वैसे ही राष्ट्र में प्रजाओं की वाणियाँ प्रजावत्सल राजा की महिमा का गान करें ॥२॥
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