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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 361
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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क꣣श्यप꣡स्य꣢ स्व꣣र्वि꣢दो꣣ या꣢वा꣣हुः꣢ स꣣यु꣢जा꣣वि꣡ति꣢ । य꣢यो꣣र्वि꣢श्व꣣म꣡पि꣢ व्र꣣तं꣢ य꣣ज्ञं꣡ धी꣢꣯रा नि꣣चा꣡य्य꣢ ॥३६१
स्वर सहित पद पाठक꣣श्य꣡प꣢स्य । स्व꣣र्वि꣡दः꣢ । स्वः꣣ । वि꣡दः꣢꣯ । यौ꣢ । आ꣣हुः꣢ । स꣣यु꣡जौ꣢ । स꣣ । यु꣡जौ꣢꣯ । इ꣡ति꣢꣯ । य꣡योः꣢꣯ । वि꣡श्व꣢꣯म् । अ꣡पि꣢꣯ । व्र꣣त꣢म् । य꣣ज्ञ꣢म् । धी꣡राः꣢꣯ । नि꣣चा꣡य्य꣢ । नि꣣ । चा꣡य्य꣢꣯ ॥३६१॥
स्वर रहित मन्त्र
कश्यपस्य स्वर्विदो यावाहुः सयुजाविति । ययोर्विश्वमपि व्रतं यज्ञं धीरा निचाय्य ॥३६१
स्वर रहित पद पाठ
कश्यपस्य । स्वर्विदः । स्वः । विदः । यौ । आहुः । सयुजौ । स । युजौ । इति । ययोः । विश्वम् । अपि । व्रतम् । यज्ञम् । धीराः । निचाय्य । नि । चाय्य ॥३६१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 361
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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विषय - अगले मन्त्र में इन्द्र के सहयोगियों के विषय में कहा गया है।
पदार्थ -
प्रथम—ब्रह्माण्ड के पक्ष में। विद्वान् लोग (यौ) जिन अग्नितत्त्व और सोमतत्त्व को (स्वर्विदः) प्रकाश वा आनन्द को प्राप्त करानेवाले (कश्यपस्य) सर्वद्रष्टा इन्द्र जगदीश्वर के (सयुजौ इति) सहयोगी (आहुः) कहते हैं, और (ययोः) जिनके (विश्वम् अपि) सारे ही (व्रतम्) कर्म को (यज्ञम् आहुः) यज्ञरूप कहते हैं (तौ) उन अग्नितत्त्व और सोमतत्त्व को (निचाय्य) जानकर, हे मनुष्यो ! तुम (धीराः) पण्डित बनो ॥ इस मन्त्र का देवता इन्द्र होने से ‘कश्यप’ यहाँ इन्द्र का नाम है। वेद में उस इन्द्र के प्रधान सहचारी अग्नि और सोम हैं, क्योंकि अग्नि और सोम के साथ बहुत-से स्थलों में उसका वर्णन मिलता है ॥ जैसे ‘इन्द्रा॑ग्नी॒ शर्म॑ यच्छतम्। ऋ० १।२१।६’, ‘इन्द्रा॑ग्नी वृत्रहणा जु॒षेथा॑म् ऋ० ७।९३।१’ में अग्नि इन्द्र का सहचारी है और ‘इन्द्रा॑सोमा यु॒वम॒स्माँ अ॑विष्टम् ऋ० २।३०।६’, ‘इन्द्रा॑सोमा॒ तप॑तं॒ रक्ष॑ उ॒ब्जत॒म् अथ० ८।४।१’ में सोम इन्द्र कासहचारी है। एक मन्त्र में इन्द्र, अग्नि और सोम तीनों एक साथ मिलते हैं—‘ य॒शा इन्द्रो य॒शा अ॒ग्निर्य॒शाः सोमो॑ अजायत अथ० ६।५८।३। निरुक्त में भी इन्द्र के सहचारी देवों में सर्वप्रथम अग्नि और सोम ही परिगणित हैं (निरु० ७।१०)। यह जगत् अग्नि और सोम से (आग्नेय तत्त्व और सौम्य तत्त्व) से ही बना है। वे ही प्रश्नोपनिषद् में रयि और प्राण नाम से वर्णित किये गये हैं। वहाँ कहा गया है कि कबन्धी कात्यायन ने भगवान् पिप्पलाद के पास जाकर प्रश्न किया कि भगवन्, ये प्रजाएँ कहाँ से उत्पन्न हो गई हैं? उसे उन्होंने उत्तर दिया कि प्रजापति ने प्रजा उत्पन्न करने की कामना से तप किया और तप करके रयि और प्राण के जोड़े को पैदा किया, इस विचार से कि ये दोनों मिलकर बहुत-सी प्रजाओं को उत्पन्न कर देंगे। वहीं पर प्राण और रयि को सूर्य-चन्द्र, उत्तरायण-दक्षिणायन, शुक्ल-कृष्ण पक्ष तथा अहोरात्र के रूप में वर्णित किया है। शतपथब्राह्मण में भी कहा है कि सूर्य आग्नेय है, चन्द्रमा सौम्य है, दिन आग्नेय है, रात्रि सौम्य है; शुक्लपक्ष आग्नेय है, कृष्णपक्ष सौम्य है (श० १।६।३।२४)। ये ही अग्नि-सोम इन्द्र के सहचररूप में प्रस्तुत मन्त्र में अभिप्रेत हैं, ऐसा समझना चाहिए। इन्द्र परमेश्वर इन्हीं के माध्यम से जगत् को उत्पन्न करता है और उसका सञ्चालन करता है। इनका सब कर्म यज्ञरूप है, यह भी मन्त्र में कहा गया है। अन्यत्र भी वेद अग्नि और सोम की महिमा वर्णित करते हुए कहता है—हे शुभकर्मोंवाले अग्नि और सोम, तुम दोनों ने आकाश में चमकीले पिण्डों को धारण किया है, तुम ही पर्वतों पर बर्फ जम जाने से रुकी हुई नदियों को बहाते हो। हे अग्नि और सोम, तुम दोनों ब्रह्म से वृद्धि पाकर यज्ञ के लिए विशाल लोक को उत्पन्न करते हो। (ऋ० १।९३।५,६)। जो लोग इन्द्र के सहचारी इन अग्नि और सोम का यह वेदप्रतिपादित महत्त्व जान लेते हैं, वे ही पण्डित हैं ॥ द्वितीय—शरीर के पक्ष में। विद्वान् लोग (यौ) जिन बुद्धि-मन अथवा प्राण-अपानरूप अग्नि-सोम को (स्वर्विदः) विवेक-प्रकाश तथा आनन्द प्राप्त करनेवाले (कश्यपस्य) ज्ञान के द्रष्टा जीवात्मारूप इन्द्र के (सयुजौ) सहयोगी (आहुः) कहते हैं, और (ययोः) जिन बुद्धि-मन अथवा प्राण-अपान के (विश्वम् अपि) सारे ही (व्रतम्) कर्म को (यज्ञम्) ज्ञान-यज्ञ अथवा शरीरसञ्चालन-यज्ञ कहते हैं, [तौ] उन बुद्धि-मन अथवा प्राण-अपान को (निचाय्य) भली-भाँति जानकर, प्रयुक्त करके और सबल बनाकर, हे मनुष्यो, तुम (धीराः) ज्ञानबोध से युक्त अथवा शरीर-धारण में समर्थ होवो। अभिप्राय यह है कि बुद्धि और मन का सम्यक् उपयोग करके ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से ज्ञान एकत्र करने में समर्थ होवो और प्राणायाम से प्राणापानों को वश करके शरीर-धारण में समर्थ होवो ॥ तृतीय—राष्ट्र के पक्ष में। राजनीतिज्ञ लोग (यौ) जिन सेनाध्यक्ष और राज्यमन्त्री रूप अग्नि और सोम को (स्वर्विदः) प्रजाओं को सुख पहुँचानेवाले, (कश्यपस्य) राजपुरुषों के कार्य और प्रजा के सुख-दुःख के द्रष्टा राजा के (सयुजौ) सहायक (आहुः) कहते हैं, और (ययोः) जिन सेनाध्यक्ष तथा राजमन्त्री के (विश्वम् अपि) सारे ही (व्रतम्) राज्यसञ्चालनरूप तथा शत्रुनिवारणरूप कर्म को (यज्ञम्) राष्ट्रयज्ञ का पूर्तिरूप (आहुः) कहते हैं, उनका (निचाय्य) सत्कार करके, हे प्रजाजनो, तुम (धीराः) धृत राष्ट्रवाले होवो ॥ चतुर्थ—आदित्य और अहोरात्र के पक्ष में।विद्वान् लोग (यौ) जिन दिन-रात्रिरूप अग्नि और सोम को (स्वर्विदः) प्रकाश प्राप्त करानेवाले (कश्यपस्य) पदार्थों का दर्शन करानेवाले अथवा गतिमय पृथिव्यादि लोकों के रक्षक आदित्य के (सयुजौ) सहयोगी (आहुः) कहते हैं, और (ययोः) जिन दिन-रात्रि के (विश्वम् अपि) सारे ही (व्रतम्) कर्म को (यज्ञम्) यज्ञात्मक अर्थात् परोपकारात्मक (आहुः) बताते हैं [तौ] उन दिन-रात्रि को (निचाय्य) जानकर, हे मनुष्यो ! तुम भी (धीराः) परोपकार-बुद्धि से युक्त होवो ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ - परमेश्वर के सहचर अग्नितत्त्व और सोमतत्त्व को, जीवात्मा के सहचर मन और बुद्धि अथवा प्राण और अपान को, राजा के सहचर सेनाधीश और अमात्य को तथा सूर्य के सहचर दिन और रात्रि को भली-भाँति जानकर उनसे यथोचित लाभ सबको प्राप्त करने चाहिएँ ॥२॥
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