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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 370
ऋषिः - रेभः काश्यपः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अति जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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वि꣢श्वाः꣣ पृ꣡त꣢ना अभि꣣भू꣡त꣢रं꣣ न꣡रः꣢ स꣣जू꣡स्त꣢तक्षु꣣रि꣡न्द्रं꣢ जज꣣नु꣡श्च꣢ रा꣣ज꣡से꣢ । क्र꣢त्वे꣣ व꣡रे꣢ स्थे꣢म꣢न्या꣣मु꣡री꣢मु꣣तो꣡ग्रमोजि꣢꣯ष्ठं त꣣र꣡सं꣢ तर꣣स्वि꣡न꣢म् ॥३७०॥
स्वर सहित पद पाठवि꣡श्वाः꣢꣯ । पृ꣡त꣢꣯नाः । अ꣣भिभू꣡त꣢रम् । अ꣣भि । भू꣡त꣢꣯रम् । न꣡रः꣢꣯ । स꣣जूः꣢ । स꣣ । जूः꣢ । त꣣तक्षुः । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । ज꣣जनुः꣢ । च꣣ । राज꣡से꣢ । क्र꣡त्वे꣢꣯ । व꣡रे꣢꣯ । स्थे꣣म꣡नि꣢ । आ꣣मु꣡री꣢म् । आ꣣ । मु꣡री꣢꣯म् । उ꣣त꣢ । उ꣣ग्र꣢म् । ओ꣡जि꣢꣯ष्ठम् । त꣣र꣡स꣢म् । त꣣रस्वि꣡न꣢म् ॥३७०॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वाः पृतना अभिभूतरं नरः सजूस्ततक्षुरिन्द्रं जजनुश्च राजसे । क्रत्वे वरे स्थेमन्यामुरीमुतोग्रमोजिष्ठं तरसं तरस्विनम् ॥३७०॥
स्वर रहित पद पाठ
विश्वाः । पृतनाः । अभिभूतरम् । अभि । भूतरम् । नरः । सजूः । स । जूः । ततक्षुः । इन्द्रम् । जजनुः । च । राजसे । क्रत्वे । वरे । स्थेमनि । आमुरीम् । आ । मुरीम् । उत । उग्रम् । ओजिष्ठम् । तरसम् । तरस्विनम् ॥३७०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 370
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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विषय - प्रथम मन्त्र में यह वर्णित है कि कैसे परमेश्वर और वीरपुरुष को लोग सम्राट् बनाते हैं।
पदार्थ -
(विश्वाः) सब (पृतनाः) शत्रुसेनाओं को (अभिभूतरम्) अतिशय पराजित करने वाले, (वरे) उत्कृष्ट (स्थेमनि) स्थिरता में विद्यमान, (आ मुरीम्) चारों ओर प्रलयकर्ता अथवा विपदाओं के संहारक (उत) और (उग्रम्) प्रचण्ड, (ओजिष्ठम्) सबसे बढ़कर ओजस्वी, (तरसम्) तरने और तराने में समर्थ, (तरस्विनम्) अति बलवान् (इन्द्रम्) परमेश्वर वा वीरपुरुष को (नरः) प्रभुभक्त व राजभक्त लोग (सजूः) इकट्ठे मिलकर (ततक्षुः) स्तुतियों व उत्साह-वचनों से तीक्ष्ण करते हैं (च) और (राजसे) हृदय-साम्राज्य में वा राष्ट्र में राज्य करने के लिए और (क्रत्वे) कर्मयोग की प्रेरणा देने के लिए अथवा कर्म करने के लिए (जजनुः) सम्राट् के पद पर अभिषिक्त करते हैं ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘तरसं, तरस्विनम्’ में छेकानुप्रास है ॥१॥
भावार्थ - जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, दुःख, दौर्मनस्य आदि की सेनाओं के पराजेता, अविचल, प्रलयकर्ता, अति ओजस्वी, तारक, बलिष्ठ परमात्मा को उपासकजन अपना हृदय-सम्राट् बनाते हैं, वैसे ही प्रजाजन शत्रुविजयी, दृढ़संकल्पवान् विपत्तिविदारक, संकटों से तरने-तराने में समर्थ शूरवीर मनुष्य को उत्साहित करके राजा के पद पर अभिषिक्त करें ॥१॥
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