Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 384
ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
6

य꣡त्सोम꣢꣯मिन्द्र꣣ वि꣡ष्ण꣢वि꣣ य꣡द्वा꣢ घ त्रि꣣त꣢ आ꣣प्त्ये꣢ । य꣡द्वा꣢ म꣣रु꣢त्सु꣣ म꣡न्द꣢से꣣ स꣡मिन्दु꣢꣯भिः ॥३८४॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣢त् । सो꣡म꣢꣯म् । इ꣣न्द्र । वि꣡ष्ण꣢꣯वि । यत् । वा꣣ । घ । त्रिते꣢ । आ꣣प्त्ये꣢ । यत् । वा꣣ । मरु꣡त्सु꣢ । म꣡न्द꣢꣯से । सम् । इ꣡न्दु꣢꣯भिः ॥३८४॥


स्वर रहित मन्त्र

यत्सोममिन्द्र विष्णवि यद्वा घ त्रित आप्त्ये । यद्वा मरुत्सु मन्दसे समिन्दुभिः ॥३८४॥


स्वर रहित पद पाठ

यत् । सोमम् । इन्द्र । विष्णवि । यत् । वा । घ । त्रिते । आप्त्ये । यत् । वा । मरुत्सु । मन्दसे । सम् । इन्दुभिः ॥३८४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 384
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4;
Acknowledgment

पदार्थ -
हे (इन्द्र) जगत् के धारणकर्ता परमात्मन् ! (यत्) क्योंकि, आपने (विष्णवि) सूर्य में अथवा आत्मा में (सोमम्) तेजरूप अथवा ज्ञानरूप सोम को निहित किया है, (यत् वा) और क्योंकि, आपने (घ) निश्चय ही (आप्त्ये) प्राप्तव्य (त्रिते) पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्युलोक तीनों स्थानों में व्याप्त होनेवाले अग्नि में अथवा मन में (सोमम्) दाहकगुणरूप अथवा संकल्परूप सोम को निहित किया है, (यद् वा) और क्योंकि (मरुत्सु) पवनों में अथवा प्राणों में (सोमम्) जीवनप्रदानरूप सोम को निहित किया है, इसलिए आप (मन्दसे) यशस्वी हैं। आप हमें भी (इन्दुभिः) पूर्वोक्त तेज, ज्ञान, दोषदाहकत्व, संकल्प एवं जीवनप्रदान रूप सोमों से (सम्) संयुक्त कीजिए ॥४॥

भावार्थ - परमेश्वर ने सूर्य, अग्नि, वायु आदियों में और जीवात्मा, मन, प्राण आदियों में जो-जो उन-उनके विशिष्ट गुण निहित किये हैं, वे ही उनके सोमरस कहाते हैं। उन गुणों से हम भी संयुक्त हों ॥४॥ इस मन्त्र की व्याख्या में विवरणकार माधव ने त्रित और आप्त्य ये पृथक्-पृथक् दो ऐतिहासिक ऋषियों के नाम माने हैं। भरतस्वामी के मत में आप्त का पुत्र कोई त्रित है। सायण के अनुसार आपः का पुत्र त्रित नाम का राजर्षि है। इनका पारस्परिक विरोध ही ऐतिहासिक पक्ष के अप्रामाण्य को प्रमाणित कर रहा है ॥

इस भाष्य को एडिट करें
Top