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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 396
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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वे꣢त्था꣣ हि꣡ निरृ꣢꣯तीनां꣣ व꣡ज्र꣢हस्त परि꣣वृ꣡ज꣢म् । अ꣡ह꣢रहः शु꣣न्ध्युः꣡ प꣢रि꣣प꣡दा꣢मिव ॥३९६॥
स्वर सहित पद पाठवे꣡त्थ꣢꣯ । हि꣡ । नि꣡र्ऋ꣢꣯तीनाम् । निः । ऋ꣣तीनाम् । व꣡ज्र꣢꣯हस्त । व꣡ज्र꣢꣯ । ह꣣स्त । परिवृ꣡ज꣢म् । प꣣रि । वृ꣡ज꣢꣯म् । अ꣡ह꣢꣯रहः । अ꣡हः꣢꣯ । अ꣣हः । शुन्ध्युः꣢ । प꣣रिप꣡दा꣢म् । प꣣रि । प꣡दा꣢꣯म् । इ꣣व ॥३९६॥
स्वर रहित मन्त्र
वेत्था हि निरृतीनां वज्रहस्त परिवृजम् । अहरहः शुन्ध्युः परिपदामिव ॥३९६॥
स्वर रहित पद पाठ
वेत्थ । हि । निर्ऋतीनाम् । निः । ऋतीनाम् । वज्रहस्त । वज्र । हस्त । परिवृजम् । परि । वृजम् । अहरहः । अहः । अहः । शुन्ध्युः । परिपदाम् । परि । पदाम् । इव ॥३९६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 396
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5;
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विषय - अगले मन्त्र में सूर्य के दृष्टान्त से इन्द्र की महिमा का वर्णन है।
पदार्थ -
हे (वज्रहस्त) शस्त्रास्त्रपाणि वीर राजन् या सेनापति, अथवा शस्त्रास्त्रधारी वीरपुरुष के समान पाप आदि विघ्नों का दलन करने में समर्थ पराक्रमशाली परमात्मन् ! (शुन्ध्युः) राष्ट्र के अथवा मन के शोधक आप (निर्ऋतीनाम्) पापों, कुनीतियों, कष्टों, अकालमृत्युओं अथवा शत्रुसेनाओं के (अहरहः) प्रतिदिन (परिवृजम्) परिहार को (वेत्थ हि) निश्चय ही जानते हो, (शुन्ध्युः) शोधक सूर्य (अहरहः) प्रतिदिन (परिपदाम् इव) जैसे चारों ओर व्याप्त अन्धकारों या रोगों का परिहार करना जानता है ॥६॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥६॥
भावार्थ - जैसे शोधक सूर्य तमोजाल, रोग, मालिन्य आदियों को दूर करता है, वैसे ही परमेश्वर संसार के पाप, कुनीति, कष्ट आदि का विनाश करता है। उसी प्रकार राजा और सेनापति को भी चाहिए कि राष्ट्र से पाप, दुराचार, अकालमृत्यु, शत्रुसेना आदियों का प्रयत्न से निवारण करे ॥६॥
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