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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 401
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - मरुतः
छन्दः - ककुप्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣡ ग꣢न्ता꣣ मा꣡ रि꣢षण्यत꣣ प्र꣡स्था꣢वानो꣣ मा꣡प꣢ स्थात समन्यवः । दृ꣣ढा꣡ चि꣢द्यमयिष्णवः ॥४०१॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । ग꣣न्ता । मा꣢ । रि꣣षण्यत । प्र꣡स्था꣢꣯वानः । प्र । स्था꣣वानः । मा꣢ । अ꣡प꣢꣯ । स्था꣣त । समन्यवः । स । मन्यवः । दृढा꣢ । चि꣣त् । यमयिष्णवः ॥४०१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ गन्ता मा रिषण्यत प्रस्थावानो माप स्थात समन्यवः । दृढा चिद्यमयिष्णवः ॥४०१॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । गन्ता । मा । रिषण्यत । प्रस्थावानः । प्र । स्थावानः । मा । अप । स्थात । समन्यवः । स । मन्यवः । दृढा । चित् । यमयिष्णवः ॥४०१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 401
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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विषय - अगले मन्त्र के ‘मरुतः’ देवता हैं। उन्हें सम्बोधन करके कहा गया है।
पदार्थ -
प्रथम—सैनिकों के पक्ष में। युद्ध उपस्थित होने पर राष्ट्र के सैनिकों को पुकारा जा रहा है। हे (प्रस्थावानः) रण-प्रस्थान करनेवाले वीर सैनिको ! तुम शत्रुओं से युद्ध करने के लिए (आ गन्त) आओ, न आकर (मा रिषण्यत) राष्ट्र की क्षति मत करो। हे (समन्यवः) मन्युवालो ! हे (दृढा चित्) दृढ रिपुदलों को भी (यमयिष्णवः) रोकने में समर्थ वीरो ! तुम (मा अपस्थात) युद्ध से अलग मत रहो ॥ द्वितीय—प्राणों के पक्ष में। पूरक-कुम्भक-रेचक आदि की विधि से प्राणायाम का अभ्यास करता हुआ योगसाधक प्राणों को सम्बोधित कर रहा है। हे (प्रस्थावानः) प्राणायाम के लिए प्रस्थित मेरे प्राणो ! तुम (आ गन्त) रेचक प्राणायाम से बाहर जाकर पूरक प्राणायाम के द्वारा पुनः अन्दर आओ, (मा रिषण्यत) हमारे स्वास्थ्य की हानि मत करो। हे (समन्यवः) तेजस्वी प्राणो !(दृढा चित्) दृढ़ता से शरीर में बद्ध भी रोग, मलिनता आदियों को (यमयिष्णवः) दूर करने में समर्थ प्राणो ! तुम (मा अपस्थात) शरीर से बाहर ही स्थित मत हो जाओ, किन्तु पूरक, कुम्भक, रेचक और स्तम्भवृत्ति के व्यापारों द्वारा मेरी प्राणसिद्धि कराओ। भाव यह है कि हम प्राणायाम से विरत न होकर नियम से उसके अभ्यास द्वारा प्रकाश के आवरण का क्षय करके धारणाओं में मन की योग्यता सम्पादित करें ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ - शत्रुओं से राष्ट्र के आक्रान्त हो जाने पर वीर योद्धाओं को चाहिए कि शत्रुओं को दिशाओं में इधर-उधर भगाकर या धराशायी करके राष्ट्र की कीर्ति को दिग्दिगन्त में फैलायें। इसी प्रकार रोग, मलिनता आदि से शरीर के आक्रान्त होने पर प्राण पूरक, कुम्भक आदि के क्रम से शरीर के स्वास्थ्य का विस्तार कर आयु को लम्बा करें ॥३॥
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