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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 404
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - मरुतः
छन्दः - ककुप्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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गा꣡व꣢श्चिद्घा समन्यवः सजा꣣꣬त्ये꣢꣯न म꣣रु꣢तः꣣ स꣡ब꣢न्धवः । रि꣣ह꣡ते꣢ क꣣कु꣡भो꣢ मि꣣थः꣢ ॥४०४॥
स्वर सहित पद पाठगा꣡वः꣢꣯ । चि꣣त् । घ । समन्यवः । स । मन्यवः । सजात्ये꣢꣯न । स꣣ । जात्ये꣢꣯न । म꣣रु꣡तः꣢ । स꣡ब꣢꣯न्धवः । स । ब꣣न्धवः । रिह꣡ते꣢ । क꣣कु꣡भः꣢ । मि꣣थः꣢ ॥४०४॥
स्वर रहित मन्त्र
गावश्चिद्घा समन्यवः सजात्येन मरुतः सबन्धवः । रिहते ककुभो मिथः ॥४०४॥
स्वर रहित पद पाठ
गावः । चित् । घ । समन्यवः । स । मन्यवः । सजात्येन । स । जात्येन । मरुतः । सबन्धवः । स । बन्धवः । रिहते । ककुभः । मिथः ॥४०४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 404
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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विषय - अगले मन्त्र के ‘मरुतः’ देवता हैं। मरुतों के सबन्धुत्व का वर्णन है।
पदार्थ -
हे (समन्यवः) तेजस्वी (गावः) स्तोता ब्राह्मणो ! (सजात्येन) समान जातिवाला होने से (मरुतः) क्षत्रिय योद्धाजन (चिद् घ) निश्चय ही (सबन्धवः) तुम्हारे सबन्धु हैं, जो (मिथः) परस्पर मिलकर, युद्ध में (ककुभः) दिशाओं को (रिहते) व्याप्त करते हैं, अर्थात् सब दिशाओं में फैलकर शत्रु के साथ लड़कर राष्ट्र की रक्षा करते हैं। अथवा जो क्षत्रिय (मिथः) तुम ब्राह्मणों के साथ मिलकर (ककुभः) ककुप् छन्दोंवाली प्रस्तुत दशति की ऋचाओं का (रिहते) पाठ तथा अर्थज्ञानपूर्वक आस्वादन करते हैं ॥५ प्रस्तुत दशति में ककुब् उष्णिक् छन्द है, जिसमें प्रथम और तृतीय पाद आठ-आठ अक्षर के तथा मध्य का द्वितीय पाद बारह अक्षर का होता है ॥६॥
भावार्थ - स्तोता ब्राह्मण और रक्षक क्षत्रिय दोनों ही राष्ट्र के अनिवार्य अङ्ग हैं। जैसे ब्राह्मण विद्यादान से क्षत्रियों का उपकार करते हैं, वैसे ही युद्ध उपस्थित होने पर क्षत्रिय लोग दिशाओं को व्याप्त कर, शत्रुओं को पराजित कर ब्राह्मणों का उपकार करते हैं। इसलिए ब्राह्मणों और क्षत्रियों को राष्ट्र में भ्रातृभाव से रहना चाहिए ॥६॥
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