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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 417
ऋषिः - त्रित आप्त्यः देवता - विश्वेदेवाः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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च꣣न्द्र꣡मा꣢ अ꣣प्स्वा꣢३꣱न्त꣡रा सु꣢꣯प꣣र्णो꣡ धा꣢वते दि꣣वि꣢ । न꣡ वो꣢ हिरण्यनेमयः प꣣दं꣡ वि꣢न्दन्ति विद्युतो वि꣣त्तं꣡ मे꣢ अ꣣स्य꣡ रो꣢दसी ॥४१७॥

स्वर सहित पद पाठ

च꣣न्द्र꣡माः꣢ । च꣣न्द्र꣢ । माः꣣ । अप्सु꣢ । अ꣣न्तः꣢ । आ । सु꣣पर्णः꣢ । सु꣣ । पर्णः꣢ । धा꣣वते । दिवि꣢ । न । वः꣣ । हिरण्यनेमयः । हिरण्य । नेमयः । पद꣢म् । वि꣣न्दन्ति । विद्युतः । वि । द्युतः । वित्त꣢म् । मे꣣ । अस्य꣢ । रो꣣दसीइ꣡ति꣢ ॥४१७॥


स्वर रहित मन्त्र

चन्द्रमा अप्स्वा३न्तरा सुपर्णो धावते दिवि । न वो हिरण्यनेमयः पदं विन्दन्ति विद्युतो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥४१७॥


स्वर रहित पद पाठ

चन्द्रमाः । चन्द्र । माः । अप्सु । अन्तः । आ । सुपर्णः । सु । पर्णः । धावते । दिवि । न । वः । हिरण्यनेमयः । हिरण्य । नेमयः । पदम् । विन्दन्ति । विद्युतः । वि । द्युतः । वित्तम् । मे । अस्य । रोदसीइति ॥४१७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 417
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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पदार्थ -
(चन्द्रमाः) चन्द्रमा (अप्सु अन्तः) अन्तरिक्ष के मध्य में, और (सुपर्णः) किरणरूप सुन्दर पंखोंवाला सूर्य (दिवि) द्युलोक में (आ धावते) चारों ओर दौड़ रहा है, अर्थात् चन्द्रमा अपनी धुरी पर घूमने के साथ-साथ पृथिवी और सूर्य के चारों ओर भी घूम रहा है, तथा सूर्य केवल अपनी धुरी पर घूम रहा है, इस बात को सब जानते हैं, किन्तु हे (हिरण्यनेमयः) स्वर्णिम् चक्रोंवाले (विद्युतः) विद्योतमान चन्द्र, सूर्य, विद्युत् आदियो ! (वः) तुम्हारे (पदम्) गतिप्रदाता को, कोई भी (न विन्दन्ति) नहीं जानते हैं। हे (रोदसी) स्त्रीपुरुषो अथवा राजा-प्रजाओ ! तुम (मे) मेरी (अस्य) इस बात को (वित्तम्) समझो। अभिप्राय यह है कि उस इन्द्र परमात्मा को साक्षात्कार करने का तुम प्रयत्न करो, जिसकी गति से यह सब-कुछ गतिमान् बना है ॥९॥

भावार्थ - मनुष्यों को प्राकृतिक पदार्थों के गति, प्रकाश आदि विषयक ज्ञान से ही सन्तोष नहीं करना चाहिए, किन्तु उसे भी जानना चाहिए जो इन पदार्थों को पैदा करनेवाला, इन्हें गति, प्रकाश आदि प्रदान करनेवाला और इनकी व्यवस्था करनेवाला है ॥९॥ इस ऋचा की व्याख्या में विवरणकार माधव ने त्रित- विषयक वही इतिहास लिखा है, जो पूर्व संख्या ३६८ के मन्त्र पर प्रदर्शित किया जा चुका है। भरत स्वामी ने भिन्न इतिहास दिखाया है—एकत, द्वित और त्रित ये तीनों आप्त के पुत्र थे। वे जब यज्ञ कराकर, गौएँ लेकर लौट रहे थे, तब मरुस्थल में प्यास से व्याकुल होकर, वहाँ एक कुएँ को देखकर वहीं रुक गये और कुएँ में उतरने का विचार करने लगे। पहले त्रित कुएँ में उतर गया। शेष दोनों को बाहर ही पानी मिल गया और वे पानी पीकर तृप्त हो गये तथा कुएँ को एक चक्र से बन्द करके गौएँ लेकर चलते बने। इधर कुएँ में बन्द पड़ा हुआ त्रित देवों की स्तुति करने लगा। वह कुआँ निर्जल था, जिसमें त्रित प्यास से व्याकुल होकर उतरा था। वहीं पड़ा-पड़ा वह रात्रि में चन्द्रमा को देखकर विलाप करने लगा कि चन्द्रमा पानी में स्थित हुआ अन्तरिक्ष में दौड़ रहा है आदि। किसी तरह मेरी प्यास बुझ जाए, इसलिए उसका विलाप है। वह कहता है कि हे आकाश और भूमि, तुम मेरे इस संकट को जानो ॥’’ यहाँ माधव और भरत स्वामी के इतिहासों में अन्तर ही उनके कल्पनाप्रसूत होने में प्रमाण है ॥

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