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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 419
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
13
आ꣡ ते꣢ अग्न इधीमहि द्यु꣣म꣡न्तं꣢ देवा꣣ज꣡र꣢म् । यु꣢द्ध꣣ स्या꣢ ते꣣ प꣡नी꣢यसी स꣣मि꣢द्दी꣣द꣡य꣢ति꣣ द्य꣡वी꣢꣯षꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥४१९॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । ते꣣ । अग्ने । इधीमहि । द्युम꣡न्त꣢म् । दे꣣व । अज꣡र꣢म् । अ । ꣣ज꣡र꣢꣯म् । यत् । ह꣣ । स्या꣢ । ते꣣ । प꣡नी꣢꣯यसी । स꣣मि꣢त् । स꣣म् । इ꣢त् । दी꣣द꣡य꣢ति । द्य꣡वि꣢꣯ । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥४१९॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते अग्न इधीमहि द्युमन्तं देवाजरम् । युद्ध स्या ते पनीयसी समिद्दीदयति द्यवीषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥४१९॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । ते । अग्ने । इधीमहि । द्युमन्तम् । देव । अजरम् । अ । जरम् । यत् । ह । स्या । ते । पनीयसी । समित् । सम् । इत् । दीदयति । द्यवि । इषम् । स्तोतृभ्यः । आ । भर ॥४१९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 419
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
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विषय - प्रथम दो ऋचाओं का अग्नि देवता है। इस मन्त्र में अग्नि परमेश्वर के दिव्य प्रकाश की याचना है।
पदार्थ -
हे (देव) सर्वप्रकाशक (अग्ने) अन्तर्यामी जगदीश्वर ! हम (ते) तेरे (द्युमन्तम्) दीप्तिमान्, (अजरम्) कभी जीर्ण न होनेवाले प्रकाश को (आ इधीमहि) हृदय में प्रदीप्त करें। (यत्) जो (ते) तेरी (स्या) वह प्रसिद्ध (पनीयसी) अतिशय स्तुतियोग्य (समित्) दीप्ति (द्यवि) सूर्य में (दीदयति) प्रकाशित है, उस (इषम्) व्याप्त दीप्ति को (स्तोतृभ्यः) हम स्तोताओं को भी (आ भर) प्रदान कर ॥१॥
भावार्थ - जो कुछ भी प्रकाशमान अग्नि, विद्युत्, चन्द्र, सूर्य, तारे आदि भूमि पर और आकाश में विद्यमान हैं, वे सब परमात्मा के ही प्रकाश से प्रकाशित हैं। उस प्रकाश से सब मनुष्यों को अपना आत्मा भी प्रकाशित करना चाहिए ॥१॥
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