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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 423
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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क्र꣡त्वा꣢ म꣣हा꣡ꣳ अ꣢नुष्व꣣धं꣢ भी꣣म꣡ आ वा꣢꣯वृते꣣ श꣡वः꣢ । श्रि꣣य꣢ ऋ꣣ष्व꣡ उ꣢पा꣣क꣢यो꣣र्नि꣢ शि꣣प्री꣡ हरि꣢꣯वान् दधे꣣ ह꣡स्त꣢यो꣣र्व꣡ज्र꣢माय꣣स꣢म् ॥४२३॥

स्वर सहित पद पाठ

क्र꣡त्वा꣢꣯ । म꣣हा꣢न् । अ꣣नुष्वध꣢म् । अ꣣नु । स्वध꣢म् । भी꣣मः꣢ । आ । वा꣣वृते । श꣡वः꣢꣯ । श्रि꣣ये꣢ । ऋ꣣ष्वः꣢ । उ꣣पाक꣡योः꣢ । नि । शि꣣प्री꣢ । ह꣡रि꣢꣯वान् । द꣣धे । ह꣡स्त꣢꣯योः । व꣡ज्र꣢꣯म् । आ꣣यस꣢म् ॥४२३॥


स्वर रहित मन्त्र

क्रत्वा महाꣳ अनुष्वधं भीम आ वावृते शवः । श्रिय ऋष्व उपाकयोर्नि शिप्री हरिवान् दधे हस्तयोर्वज्रमायसम् ॥४२३॥


स्वर रहित पद पाठ

क्रत्वा । महान् । अनुष्वधम् । अनु । स्वधम् । भीमः । आ । वावृते । शवः । श्रिये । ऋष्वः । उपाकयोः । नि । शिप्री । हरिवान् । दधे । हस्तयोः । वज्रम् । आयसम् ॥४२३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 423
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
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पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (क्रत्वा) दिव्य प्रज्ञा और जगत् के धारण आदि कर्म से (महान्) महान्, (भीमः) नियम तोड़नेवालों के लिए भयंकर वह इन्द्र परमेश्वर (अनु स्वधम्) अपनी धारणशक्ति के अनुरूप (शवः) बलवान् सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि को (आ वावृते) घुमा रहा है। (ऋष्वः) लोकलोकान्तरों को अपनी-अपनी कक्षाओं में गति करानेवाला, (शिप्री) जगत् का विस्तारक, (हरिवान्) अकर्मण्यता आदि दोषों को हरने के सामर्थ्यवाला वह (श्रिये) ऐश्वर्यप्रदानार्थ (उपाकयोः) परस्पर सम्बद्ध (हस्तयोः) मनुष्य के हाथों में (आयसम्) दृढ (वज्रम्) शस्त्रास्त्रसमूह को (आ दधे) थमाता है ॥ द्वितीय—सेनापति के पक्ष में। (क्रत्वा) शत्रुवध आदि कर्म से (महान्) महान्, (भीमः) दुष्टों के लिए भयंकर इन्द्र अर्थात् वीर सेनापति (अनुस्वधम्) पौष्टिक अन्न के भक्षण के अनुरूप, अपने शरीर में (शवः) बल (आ वावृते) उत्पन्न करता है। (ऋष्वः) गतिमान्, कर्मण्य, (शिप्री) शत्रुओं में आक्रोश या हाहाकार पैदा करनेवाला, (हरिवान्) प्रशस्त घोड़ों अथवा हरणसाधन विमानादि यानोंवाला वह (श्रिये) विजयश्री प्राप्त करने के लिए (उपाकयोः) निकट पहुँचे शत्रुदलों के ऊपर प्रहारार्थ (हस्तयोः) हाथों में (आयसम्) लोहे के बने, अथवा लोहे जैसे दृढ (वज्रम्) शस्त्रास्त्रसमूह को (नि दधे) धारण करता है ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥५॥

भावार्थ - जैसे परमेश्वर अकर्मण्य लोगों के भी हृदय में वीरता का सञ्चार करके उनके हाथों में शस्त्रास्त्र ग्रहण करा देता है, वैसे ही सेनापति अपने हाथों में शत्रु का वध करने में समर्थ दृढ़ शस्त्रास्त्रों को धारण कर, शत्रुओं पर प्रहार करके उन्हें पराजित करे ॥५॥

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