Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 426
ऋषिः - अंहोमुग्वामदेव्यः देवता - विश्वेदेवाः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
6

न꣢꣫ तमꣳहो꣣ न꣡ दु꣢रि꣣तं꣡ देवा꣢꣯सो अष्ट꣣ म꣡र्त्य꣢म् । स꣣जो꣡ष꣢सो꣣ य꣡म꣢र्य꣣मा꣢ मि꣣त्रो꣡ नय꣢꣯ति꣣ व꣡रु꣢णो꣣ अ꣢ति꣣ द्वि꣡षः꣢ ॥४२६॥

स्वर सहित पद पाठ

न꣢ । तम् । अँ꣡हः꣢꣯ । न । दु꣣रित꣢म् । दुः꣣ । इत꣢म् । दे꣡वा꣢꣯सः । अ꣣ष्ट । म꣡र्त्य꣢꣯म् । स꣣जो꣡ष꣢सः । स꣣ । जो꣡ष꣢꣯सः । यम् । अ꣡र्यमा꣢ । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । न꣡य꣢꣯ति । व꣡रु꣢꣯णः । अ꣡ति꣢꣯ । द्वि꣡षः꣢꣯ ॥४२६॥


स्वर रहित मन्त्र

न तमꣳहो न दुरितं देवासो अष्ट मर्त्यम् । सजोषसो यमर्यमा मित्रो नयति वरुणो अति द्विषः ॥४२६॥


स्वर रहित पद पाठ

न । तम् । अँहः । न । दुरितम् । दुः । इतम् । देवासः । अष्ट । मर्त्यम् । सजोषसः । स । जोषसः । यम् । अर्यमा । मित्रः । मि । त्रः । नयति । वरुणः । अति । द्विषः ॥४२६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 426
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
Acknowledgment

पदार्थ -
हे (देवासः) विद्वानो ! (तं मर्त्यम्) उस मनुष्य को (न अंहः) न अपराध, (न दुरितम्) न पाप (अष्ट) प्राप्त होता है, (यम्) जिसे (सजोषसः) समान प्रीतिवाले, परस्पर सामञ्जस्य रखनेवाले, (अर्यमा) मन, सूर्य वा न्यायाधीश, (मित्रः) प्राण, वायु वा मित्र और (वरुणः) आत्मा, चन्द्रमा वा राजा (द्विषः) विपत्ति, विघ्नसमूह वा शत्रुसंघ से (अति नयति) पार कर देते हैं ॥८॥

भावार्थ - शरीर में, जड़ जगत् में, समाज में और राष्ट्र में क्रमशः जो मन, प्राण आदि, जो सूर्य आदि, जो श्रेष्ठ मित्र आदि और जो राजा आदि मुख्य हैं, उनकी रक्षा प्राप्त करके मनुष्य पापों और शत्रुओं को पराजित कर सकते हैं ॥८॥ इस दशति में इन्द्र के तथा इन्द्र से सम्बद्ध अग्नि, उषा, सोम, मित्र, वरुण और अर्यमा के गुण-कर्म वर्णित होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में प्रथम अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में अष्टम खण्ड समाप्त ॥

इस भाष्य को एडिट करें
Top