Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 439
ऋषिः - त्रसदस्युः देवता - इन्द्रः छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5

ब्र꣣ह्मा꣢ण꣣ इ꣡न्द्रं꣢ म꣣ह꣡य꣢न्तो अ꣣र्कै꣡र꣢꣯वर्धय꣣न्न꣡ह꣢ये꣣ ह꣢न्त꣣वा꣡ उ꣢ ॥४३९॥

स्वर सहित पद पाठ

ब्र꣣ह्मा꣡णः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । म꣣ह꣡य꣢न्तः । अ꣣र्कैः꣢ । अ꣡व꣢꣯र्धयन् । अ꣡ह꣢꣯ये । हन्त꣣वै꣢ । उ꣣ ॥४३९॥


स्वर रहित मन्त्र

ब्रह्माण इन्द्रं महयन्तो अर्कैरवर्धयन्नहये हन्तवा उ ॥४३९॥


स्वर रहित पद पाठ

ब्रह्माणः । इन्द्रम् । महयन्तः । अर्कैः । अवर्धयन् । अहये । हन्तवै । उ ॥४३९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 439
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
Acknowledgment

पदार्थ -
(ब्रह्माणः) आस्तिक तथा देशभक्त लोग (अर्कैः) वेदमन्त्रों से (इन्द्रम्) विघ्नविदारक परमेश्वर वा राजा को (महयन्तः) पूजित वा सत्कृत करते हुए (अहये हन्तवै) सर्प के समान कुटिल गतिवाले विघ्न-समूह, पाप वा शत्रु को नष्ट करने के लिए (उ) निश्चय ही (अवर्द्धयन्) अपने हृदय में वा राष्ट्र में बढ़ाते हैं ॥३॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥३॥

भावार्थ - जैसे परमेश्वर योगमार्ग में आये विघ्नों का, अन्तःकरण और समाज में प्रसार पाये पापरूप शत्रुओं का तथा दुष्टों का संहार करता है, वैसे ही राजा को चाहिए कि राष्ट्र की उन्नति के लिए शत्रुओं का विनाश करे ॥३॥

इस भाष्य को एडिट करें
Top