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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 449
ऋषिः - बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च क्रमेण गोपायना लौपायना वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - द्विपदा गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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भ꣢गो꣣ न꣢ चि꣣त्रो꣢ अ꣣ग्नि꣢र्म꣣हो꣢नां꣣ द꣡धा꣢ति꣣ र꣡त्न꣢म् ॥४४९
स्वर सहित पद पाठभ꣣गः꣢꣯ । न । चि꣣त्रः꣢ । अ꣣ग्निः꣢ । म꣣हो꣡ना꣢म् । द꣡धा꣢꣯ति । र꣡त्न꣢꣯म् ॥४४९॥
स्वर रहित मन्त्र
भगो न चित्रो अग्निर्महोनां दधाति रत्नम् ॥४४९
स्वर रहित पद पाठ
भगः । न । चित्रः । अग्निः । महोनाम् । दधाति । रत्नम् ॥४४९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 449
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 11;
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विषय - अगले मन्त्र में अग्नि नाम से परमेश्वर और राजा की महिमा वर्णित है।
पदार्थ -
(भगः न) सेवनीय सूर्य के समान (चित्रः) अद्भुत गुण, कर्म, स्वभाववाला (अग्निः) अग्रनेता परमेश्वर वा राजा (महोनाम्) तेजस्वी वा महत्वाकांक्षी जनों के (रत्नम्) रमणीय ऐश्वर्य को (दधाति) परिपुष्ट करता है ॥३॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ - जो स्वयं महत्वाकांक्षी वा तेजस्वी नहीं हैं, उनकी परमात्मा वा राजा भी भला क्या सहायता करेंगे ॥३॥
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