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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 462
ऋषिः - एवयामरुदात्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - अतिजगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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प्र꣡ वो꣢ म꣣हे꣢ म꣣त꣡यो꣢ यन्तु꣣ वि꣡ष्ण꣢वे म꣣रु꣡त्व꣢ते गिरि꣣जा꣡ ए꣢व꣣या꣡म꣢रुत् । प्र꣡ शर्धा꣢꣯य꣣ प्र꣡ यज्य꣢꣯वे सुखा꣣द꣡ये꣢ त꣣व꣡से भ꣣न्द꣡दि꣢ष्टये꣣ धु꣡नि꣢व्रताय꣣ श꣡व꣢से ॥४६२॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । वः꣣ । महे꣢ । म꣣त꣡यः꣢ । य꣣न्तु । वि꣡ष्ण꣢꣯वे । म꣣रु꣡त्व꣢ते । गि꣣रिजाः꣢ । गि꣣रि । जाः꣢ । ए꣣वया꣡म꣢रुत् । ए꣣वया꣢ । म꣣रुत् । प्र꣢ । श꣡र्धा꣢꣯य । प्र । य꣡ज्य꣢꣯वे । सु꣣खाद꣡ये꣢ । सु꣣ । खाद꣡ये꣢ । त꣣व꣡से꣢ । भ꣣न्द꣡दि꣢ष्टये । भ꣣न्द꣢त् । इ꣣ष्टये । धु꣡नि꣢꣯व्रताय । धु꣡नि꣢꣯ । व्र꣣ताय । श꣡व꣢꣯से ॥४६२॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र वो महे मतयो यन्तु विष्णवे मरुत्वते गिरिजा एवयामरुत् । प्र शर्धाय प्र यज्यवे सुखादये तवसे भन्ददिष्टये धुनिव्रताय शवसे ॥४६२॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । वः । महे । मतयः । यन्तु । विष्णवे । मरुत्वते । गिरिजाः । गिरि । जाः । एवयामरुत् । एवया । मरुत् । प्र । शर्धाय । प्र । यज्यवे । सुखादये । सु । खादये । तवसे । भन्ददिष्टये । भन्दत् । इष्टये । धुनिव्रताय । धुनि । व्रताय । शवसे ॥४६२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 462
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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पदार्थ -
प्रथम—अध्यात्म-पक्ष में। हे साथियों ! (महे) महान्, (मरुत्वते) प्राणयुक्त (विष्णवे) सारे शरीर में व्याप्त क्रियावाले अपने जीवात्मा के प्रोत्साहनार्थ (वः) तुम्हारी (मतयः) बुद्धियाँ वा वाणियाँ (प्र यन्तु) प्रवृत्त हों, जो जीवात्मा (गिरिजाः) पर्वत-सदृश शरीर में जन्मा हुआ और (यवयामरुत्) वेगवान् प्राणवाला है। (यज्यवे) शरीर-सञ्चालन रूप यज्ञ के कर्ता, (सुखादये) रोग आदियों को पूर्णतः खा जानेवाले (तवसे) शरीर से वृद्धिशील, (भन्ददिष्टये) सुखजनक शतायुष्य रूप इष्टि को करनेवाले, (धुनिव्रताय) शारीरिक और मानसिक दोषों को कंपित करनेवाले कर्म से युक्त (शवसे) बलवान् (शर्धाय) प्राणबल को पाने के लिए भी, तुम्हारी बुद्धियाँ वा वाणियाँ (प्र प्र यन्तु) प्रकृष्ट रूप से प्रवृत्त हों ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। हे राष्ट्रवासियो ! (महे) महान् (मरुत्वते) प्रशस्त योद्धा सैनिकों से युक्त (विष्णवे) यानों द्वारा जल, स्थल, अन्तरिक्ष तीनों स्थानों में व्याप्त होनेवाले राजा के लिए (वः) तुम्हारी (मतयः) वाणियाँ (प्र यन्तु) प्रवृत्त हों, जो राजा (गिरिजाः) पर्वततुल्य सर्वोच्च पद पर अभिषिक्त और (एवया-मरुत्) वेगवान् सैनिकोंवाला है। और (यज्यवे) राष्ट्ररक्षा-रूप यज्ञ के अनुष्ठाता, (सुखादये) उत्कृष्ट पादत्राणों और हस्तत्राणों से युक्त, (तवसे) गतिमान्, कर्मण्य, (भन्ददिष्टये) संग्रामरूप यज्ञ से सुख पानेवाले, (धुनिव्रताय) शत्रुप्रकम्पक कर्मोंवाले, (शवसे) बलवान् (शर्धाय) वीर योद्धाओं के सैन्य के लिए भी, तुम्हारी वाणियाँ (प्र प्र यन्तु) अतिशय प्रवृत्त हों, अर्थात् तुम राजा की तथा उसके सैन्यगण की प्रशंसा करो और उन्हें उत्तम उद्बोधन दो ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥६॥

भावार्थ - मनुष्य जब प्राणायाम से शारीरिक और मानसिक दोषों को जलाकर आत्मिक बल बढ़ाते हैं, तब सब सिद्धियाँ उन्हें हस्तगत हो जाती हैं। वैसे ही राष्ट्र के वीर सैनिक सब शत्रुओं को कँपा कर जब राजा के बल को बढ़ाते हैं, तब राष्ट्र में सब उन्नतियाँ भासित होने लगती हैं ॥६॥

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