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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 463
ऋषिः - अनानतः पारुच्छेपिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣या꣢ रु꣣चा꣡ हरि꣢꣯ण्या पुना꣣नो꣢꣫ विश्वा꣣ द्वे꣡षा꣢ꣳसि तरति स꣣यु꣡ग्व꣢भिः꣣ सू꣢रो꣣ न꣢ स꣣यु꣡ग्व꣢भिः । धा꣡रा꣢ पृ꣣ष्ठ꣡स्य꣢ रोचते पुना꣣नो꣡ अ꣢रु꣣षो꣡ हरिः꣢꣯ । वि꣢श्वा꣣ य꣢द्रू꣣पा꣡ प꣢रि꣣या꣡स्यृक्व꣢꣯भिः स꣣प्ता꣡स्ये꣢भि꣣रृ꣡क्व꣢भिः ॥४६३॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣या꣢ । रु꣣चा꣢ । ह꣡रि꣢꣯ण्या । पुना꣣नः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । द्वे꣡षाँ꣢꣯सि । त꣣रति । स꣣युग्व꣢भिः꣣ । स । यु꣡ग्व꣢꣯भिः । सू꣡रः꣢꣯ । न । स꣣यु꣡ग्व꣢भिः । स꣣ । यु꣡ग्व꣢꣯भिः । धा꣡रा꣢꣯ । पृ꣣ष्ठ꣡स्य꣢ । रो꣣चते । पुनानः꣢ । अ꣣रु꣢षः । ह꣡रिः꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯ । यत् । रू꣣पा꣢ । प꣣रिया꣡सि꣢ । प꣣रि । या꣡सि꣢꣯ । ऋ꣡क्व꣢꣯भिः । स꣣प्ता꣡स्ये꣢भिः । स꣣प्त꣢ । आ꣣स्येभिः । ऋ꣡क्व꣢꣯भिः ॥४६३॥


स्वर रहित मन्त्र

अया रुचा हरिण्या पुनानो विश्वा द्वेषाꣳसि तरति सयुग्वभिः सूरो न सयुग्वभिः । धारा पृष्ठस्य रोचते पुनानो अरुषो हरिः । विश्वा यद्रूपा परियास्यृक्वभिः सप्तास्येभिरृक्वभिः ॥४६३॥


स्वर रहित पद पाठ

अया । रुचा । हरिण्या । पुनानः । विश्वा । द्वेषाँसि । तरति । सयुग्वभिः । स । युग्वभिः । सूरः । न । सयुग्वभिः । स । युग्वभिः । धारा । पृष्ठस्य । रोचते । पुनानः । अरुषः । हरिः । विश्वा । यत् । रूपा । परियासि । परि । यासि । ऋक्वभिः । सप्तास्येभिः । सप्त । आस्येभिः । ऋक्वभिः ॥४६३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 463
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
Acknowledgment

पदार्थ -
यह सोम अर्थात् इन्द्रियों को कर्मों में प्रेरित करनेवाला आत्मा (अया) इस (हरिण्या) हृदयहारिणी (रुचा) तेजस्विता से (पुनानः) पवित्रता देता हुआ (सयुग्वभिः) साथ नियुक्त होनेवाले प्राणों के साथ मिलकर (विश्वा द्वेषांसि) सब द्वेषी विघ्नों अथवा काम, क्रोध आदि छहों रिपुओं को (तरति) पार कर लेता है, (सूरः न) जैसे सूर्य(सयुग्वभिः) सहयोगी किरणों से (विश्वा द्वेषांसि) सब शत्रुभूत अन्धकारों को (तरति) पार करता है। (पृष्ठस्य) प्रकाशसेचक आत्मारूप सोम की (धारा) प्रकाश-धारा (रोचते) भासित होती है। (अरुषः) तेज से आरोचमान (हरिः) पापहारी तू आत्मारूप सोम (पुनानः) मन, बुद्धि आदि को पवित्र करता है, (यत्) जबकि तू (ऋक्वभिः) प्रशस्तस्तुतियुक्त कर्मों के साथ, और (ऋक्वभिः) प्रशंसनीय (सप्तास्यैः) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इन सप्तमुख प्राणों के साथ (विश्वा रूपा) सब रूपधारी मनुष्यों को (परियासि) प्राप्त होता है ॥ यहाँ ‘सूरो न सयुग्वभिः’ द्वारा सूर्य को उपमान बनाने से शेष मन्त्र सूर्य के पक्ष में भी घटता है। कैसा सूर्य? जो (अया) इस (हरिण्या) तमोहारिणी (रुचा) दीप्ति से (पुनानः) भूमि को पवित्र करता हुआ (सयुग्वभिः) सहयोगी किरणों से (विश्वा द्वेषांसि) सब द्वेषकारी अन्धकार, रोग आदियों को (तरति) निवारण करता है, (पृष्ठस्य) वृष्टिकर्ता जिस सूर्य की (धारा) प्रकाशधारा या वृष्टिधारा (रोचते) चमकती है, जो (अरुषः) तेजस्वी रूपवाला (हरिः) आकर्षण-बल से पृथिवी आदि लोकों का धारणकर्ता सूर्य (पुनानः) पवित्रता देता है, (यत्) जबकि (सप्तास्येभिः) सात मुखों अर्थात् रंगोंवाली (ऋक्वभिः) प्रशंसनीय किरणों से (विश्वा रूपाणि) सब रूपवान् वस्तुओं को (परियासि) प्राप्त होता है ॥७॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है। ‘सयुग्वभिः’ और ‘ऋक्वभिः’ की एक-एक बार आवृत्ति में यमक है ॥७॥

भावार्थ - जैसे सूर्य अपनी किरणों से रोग, मलिनता आदि को दूर कर समस्त भूमण्डल को पवित्र करता है, वैसे ही मनुष्यों का आत्मा सब पाप, द्वेष आदि कल्मषों को दूर कर जीवन को पवित्र करे ॥७॥

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