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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 510
ऋषिः - अमहीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣣पघ्न꣡न्प꣢वते꣣ मृ꣢꣫धोऽप꣣ सो꣢मो꣣ अ꣡रा꣢व्णः । ग꣢च्छ꣣न्नि꣡न्द्र꣢स्य नि꣣ष्कृ꣢तम् ॥५१०॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣पघ्न꣢न् । अ꣣प । घ्न꣢न् । प꣣वते । मृ꣡धः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । सो꣡मः꣢꣯ । अ꣡रा꣢꣯व्णः । अ । रा꣣व्णः । ग꣡च्छ꣢꣯न् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । नि꣣ष्कृत꣢म् । निः꣣ । कृत꣢म् ॥५१०॥


स्वर रहित मन्त्र

अपघ्नन्पवते मृधोऽप सोमो अराव्णः । गच्छन्निन्द्रस्य निष्कृतम् ॥५१०॥


स्वर रहित पद पाठ

अपघ्नन् । अप । घ्नन् । पवते । मृधः । अप । सोमः । अराव्णः । अ । राव्णः । गच्छन् । इन्द्रस्य । निष्कृतम् । निः । कृतम् ॥५१०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 510
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 14
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
(सोमः) पवित्र रस का भण्डार परमेश्वर (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (निष्कृतम्) संस्कृत किये हुए हृदयरूप घर में (गच्छन्) जाता हुआ, (मृधः) संग्रामकर्ता पापरूप शत्रुओं को (अपघ्नन्) विध्वस्त करता हुआ और (अराव्णः)अदानशील स्वार्थभावों को (अप) विनष्ट करता हुआ (पवते) पवित्रता प्रदान करता है ॥१४॥

भावार्थ - जब पवित्रतादायक आनन्दरस की धारा को प्रवाहित करता हुआ सोम परमेश्वर साधक के हृदय में प्रकट होता है तब उसका हृदय सब वासनाओं से रहित और स्वार्थवृत्ति से विहीन होकर पवित्र हो जाता है ॥१४॥ इस दशति में सोम परमात्मा तथा उससे उत्पन्न होनेवाली आनन्दरसधारा का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में प्रथम अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥

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