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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 512
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
6
प꣢री꣣तो꣡ षि꣢ञ्चता सु꣣त꣢꣫ꣳ सोमो꣣ य꣡ उ꣢त्त꣣म꣢ꣳ ह꣣विः꣢ । द꣣धन्वा꣡न् यो नर्यो꣢꣯ अ꣣प्स्वा꣢३꣱न्त꣢꣯रा सु꣣षा꣢व꣣ सो꣢म꣣म꣡द्रि꣢भिः ॥५१२॥
स्वर सहित पद पाठप꣡रि꣢꣯ । इ꣣तः꣢ । सि꣣ञ्चत । सुत꣢म् । सो꣡मः꣢꣯ । यः । उ꣣त्तम꣢म् । ह꣣विः꣢ । द꣣धन्वा꣢न् । यः । न꣡र्यः꣢꣯ । अ꣣प्सु꣢ । अ꣣न्तः꣢ । आ । सु꣣षा꣡व꣢ । सो꣡म꣢꣯म् । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः ॥५१२॥
स्वर रहित मन्त्र
परीतो षिञ्चता सुतꣳ सोमो य उत्तमꣳ हविः । दधन्वान् यो नर्यो अप्स्वा३न्तरा सुषाव सोममद्रिभिः ॥५१२॥
स्वर रहित पद पाठ
परि । इतः । सिञ्चत । सुतम् । सोमः । यः । उत्तमम् । हविः । दधन्वान् । यः । नर्यः । अप्सु । अन्तः । आ । सुषाव । सोमम् । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः ॥५१२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 512
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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विषय - अगले मन्त्र में मनुष्यों को सोम के सेचनार्थ प्रेरित किया गया है।
पदार्थ -
प्रथम—सोम ओधधि के रस के पक्ष में। हे मनुष्यो ! (यः सोमः) जो सोमरस (उत्तमम्) उत्तम (हविः) हव्य अथवा भोज्य है, उस (सुतम्) अभिषुत सोमरस को (इतः) इस यज्ञवेदि से अथवा भोजनालय से (परि सिञ्चत) यज्ञाग्नि अथवा जाठराग्नि में चारों ओर सींचो। (नर्यः) मनुष्यों का हितकर्मा (यः) जो सोमरस (दधन्वान्) यजमान को अथवा पीनेवाले को धारण करता है और जिस (सोमम्) सोमरस को अभिषोता (अद्रिभिः) यज्ञिय सिलबट्टों से, तीव्रता कम करने के लिए (अप्सु अन्तः) जलों के अन्दर (आ सुषाव) अभिषुत करता है ॥ द्वितीय—अध्यात्मपक्ष में। हे मनुष्यो ! (यः सोमः) जो भक्तिरस, उपासनायज्ञ में (उत्तमं हविः) उत्कृष्टतम हवि है, उस (सुतम्) अभिषुत भक्तिरस को, तुम (इतः) इस हृदय से (परि सिञ्चत) चारों ओर प्रवाहित करो, (नर्यः) मनुष्यों का हितकर्ता (यः) जो भक्तिरस, (दधन्वान्) उपासक को धारण करता है, और जिस (सोमम्) भक्तिरस को, उपासनायज्ञ का यजमान आत्मा (अद्रिभिः) ध्यानरूप सिलबट्टों से (अप्सुः अन्तः) प्राणों के अन्दर (आ सुषाव) अभिषुत करता है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ - जैसे बाह्य यज्ञ में अथवा भोजन में सोम ओषधि का रस सिलबट्टों द्वारा अभिषुत करके जलों में मिलाया जाता है, वैसे ही अध्यात्मयज्ञ में भक्तिरस को ध्यानरूप सिलबट्टों से अभिषुत करके अपने जीवन का अङ्ग बनाना चाहिए ॥२॥
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