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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 514
ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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प्र꣡ सो꣢म दे꣣व꣡वी꣢तये꣣ सि꣢न्धु꣣र्न꣡ पि꣢प्ये꣣ अ꣡र्ण꣢सा । अ꣣ꣳशोः꣡ पय꣢꣯सा मदि꣣रो꣡ न जागृ꣢꣯वि꣣र꣢च्छा꣣ को꣡शं꣢ मधु꣣श्चु꣡त꣢म् ॥५१४॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । सो꣣म । दे꣡व꣢वीतये । दे꣣व꣢ । वी꣣तये । सि꣡न्धुः꣢꣯ । न । पि꣣प्ये । अ꣡र्ण꣢꣯सा । अँ꣣शोः꣢ । प꣡य꣢꣯सा । म꣣दिरः꣢ । न । जा꣡गृ꣢꣯विः । अ꣡च्छ꣢꣯ । को꣡श꣢꣯म् । म꣣धुश्चु꣡त꣢म् । म꣣धु । श्चु꣡त꣢꣯म् ॥५१४॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र सोम देववीतये सिन्धुर्न पिप्ये अर्णसा । अꣳशोः पयसा मदिरो न जागृविरच्छा कोशं मधुश्चुतम् ॥५१४॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । सोम । देववीतये । देव । वीतये । सिन्धुः । न । पिप्ये । अर्णसा । अँशोः । पयसा । मदिरः । न । जागृविः । अच्छ । कोशम् । मधुश्चुतम् । मधु । श्चुतम् ॥५१४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 514
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
हे (सोम) जीवात्मन् ! (देववीतये) दिव्य जीवन की प्राप्ति के लिए, तू (अर्णसा) जल से (सिन्धुः न) महानदी के समान (अर्णसा) ज्ञानरस से (प्र पिप्ये) वृद्धि को प्राप्त कर। (अंशोः) बादल के (पयसा) जल से (मदिरः न) हर्ष को प्राप्त किसान के समान (जागृविः) जागरूक होकर (मधुश्चुतम्) आनन्द को प्रवाहित करनेवाले (कोशम्) आनन्दरस के खजाने परमात्मा के (अच्छ) अभिमुख हो। जैसे किसान जागरूक होकर धान्यरूप मधु के उत्पादक खेत के अभिमुख होता है, यह अभिप्राय है ॥४॥ इस मन्त्र में ‘सिन्धुर्न’ और ‘मदिरो न’ इस प्रकार दो उपमाओं की संसृष्टि है ॥४॥

भावार्थ - जैसे बड़ी नदी वर्षा के जल से बढ़ जाती है, वैसे ही मनुष्य ज्ञानरस से बढ़े। जैसे वर्षा से तृप्त किसान जागरूक रहकर खेत से फसल प्राप्त करने का यत्न करता है, वैसे ही मनुष्य ज्ञानरस से तृप्त होकर निरन्तर जागरूक रहकर भक्ति द्वारा परमात्मा के पास से आनन्दरस पाने का प्रयत्न करे ॥४॥

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