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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 517
ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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मृ꣣ज्य꣡मा꣢नः सुहस्त्या समु꣣द्रे꣡ वाच꣢꣯मिन्वसि । र꣣यिं꣢ पि꣣श꣡ङ्गं꣢ बहु꣣लं꣡ पु꣢रु꣣स्पृ꣢हं꣣ प꣡व꣢माना꣣꣬भ्य꣢꣯र्षसि ॥५१७॥

स्वर सहित पद पाठ

मृ꣣ज्य꣡मा꣢नः । सु꣣हस्त्या । सु । हस्त्य । समुद्रे꣢ । स꣣म् । उद्रे꣢ । वा꣡च꣢꣯म् । इ꣣न्वसि । रयि꣢म् । पि꣣श꣡ङ्ग꣢म् । ब꣣हुल꣢म् । पु꣣रुस्पृ꣡ह꣢म् । पु꣣रु । स्पृ꣡ह꣢꣯म् । प꣡व꣢꣯मान । अ꣣भि꣢ । अ꣣र्षसि ॥५१७॥


स्वर रहित मन्त्र

मृज्यमानः सुहस्त्या समुद्रे वाचमिन्वसि । रयिं पिशङ्गं बहुलं पुरुस्पृहं पवमानाभ्यर्षसि ॥५१७॥


स्वर रहित पद पाठ

मृज्यमानः । सुहस्त्या । सु । हस्त्य । समुद्रे । सम् । उद्रे । वाचम् । इन्वसि । रयिम् । पिशङ्गम् । बहुलम् । पुरुस्पृहम् । पुरु । स्पृहम् । पवमान । अभि । अर्षसि ॥५१७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 517
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
हे (सुहस्त्य) उत्तम ऐश्वर्योंवाले रसागार सोम परमात्मन् ! (मृज्यमानः) स्तुतियों से अलङ्कृत किये जाते हुए आप (समुद्रे) उपासक के हृदयान्तरिक्ष में (वाचम्) सत्प्रेरणारूप वाणी को (इन्वसि) प्रेरित करते हो। हे (पवमान) पवित्रता देनेवाले जगदीश्वर ! आप (बहुलम्) बहुत सारे (पुरुस्पृहम्) बहुत चाहने योग्य अथवा बहुतों से चाहने योग्य (पिशङ्गं रयिम्) पीले धन सुवर्ण को अथवा तेज से युक्त आध्यात्मिक धन सत्य, अहिंसा आदि को (अभ्यर्षसि) प्रदान करते हो ॥७॥ इस मन्त्र में द्वितीय और चतुर्थ पादों में अन्त्यानुप्रास अलङ्कार है, पवर्ग जिनके बाद आता है, ऐसे अनेक अनुस्वारों के सहप्रयोग में वृत्त्यनुप्रास है ॥७॥

भावार्थ - सबके हृदय में स्थित परमेश्वर दिव्य संदेश निरन्तर देता रहता है, वही जीवन को पवित्र करता हुआ तेजोमय आध्यात्मिक और भौतिक धन भी प्रदान करता है ॥७॥

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