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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 527
ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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सो꣡मः꣢ पवते जनि꣣ता꣡ म꣢ती꣣नां꣡ ज꣢नि꣣ता꣢ दि꣣वो꣡ ज꣢नि꣣ता꣡ पृ꣢थि꣣व्याः꣢ । ज꣣निता꣡ग्नेर्ज꣢꣯नि꣣ता꣡ सूर्य꣢꣯स्य जनि꣣ते꣡न्द्र꣢स्य जनि꣣तो꣡त विष्णोः꣢꣯ ॥५२७॥
स्वर सहित पद पाठसो꣡मः꣢꣯ । प꣣वते । जनिता꣢ । म꣣तीना꣢म् । ज꣣निता꣢ । दि꣣वः꣢ । ज꣣निता꣢ । पृ꣣थिव्याः꣢ । ज꣣निता꣢ । अ꣣ग्नेः꣢ । ज꣣निता꣢ । सू꣡र्य꣢꣯स्य । ज꣣निता꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । ज꣣निता꣢ । उ꣣त꣢ । वि꣡ष्णोः꣢꣯ ॥५२७॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः । जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः ॥५२७॥
स्वर रहित पद पाठ
सोमः । पवते । जनिता । मतीनाम् । जनिता । दिवः । जनिता । पृथिव्याः । जनिता । अग्नेः । जनिता । सूर्यस्य । जनिता । इन्द्रस्य । जनिता । उत । विष्णोः ॥५२७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 527
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6;
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विषय - अगले मन्त्र में परमात्मा के सर्वजनकत्व का वर्णन है।
पदार्थ -
(सोमः) सर्वोत्पादक, रसागार और चन्द्रमा के समान कमनीय परमेश्वर (पवते) हृदयों को पवित्र करता है, जो (मतीनाम्) बुद्धियों का (जनिता) उत्पादक है, (दिवः) द्युलोक का तथा मनोमय कोश का (जनिता) उत्पादक है, (पृथिव्याः) भूलोक का तथा अन्नमय कोश का (जनिता) उत्पादक है, (अग्नेः) आग का तथा वाणी का (जनिता) उत्पादक है, (सूर्यस्य) सूर्य का तथा चक्षु का (जनिता) उत्पादक है, (इन्द्रस्य) वायु का तथा प्राणमयकोश का (जनिता) उत्पादक है, (उत) और (विष्णोः) यज्ञ का (जनिता) उत्पादक है ॥५॥ इस मन्त्र में पुनः-पुनः ‘जनिता’ कहने से यह सूचित होता है कि इसी प्रकार अन्य भी अनेक पदार्थों का जनिता है। लाटानुप्रास अलङ्कार है। कुवलयानन्द का अनुसरण करने पर आवृत्तिदीपक अलङ्कार है ॥५॥
भावार्थ - सर्वोत्पादक परमात्मा ने ही ब्रह्माण्ड के सूर्य, चन्द्र, वायु, विद्युत् आदि और शरीर पिण्ड के प्राण, मन, बुद्धि, वाक्, चक्षु, श्रोत्र आदि रचे हैं, क्योंकि उनकी रचना करना किसी मनुष्य के सामर्थ्य में नहीं है ॥५॥
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