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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 53
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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का꣡य꣢मानो व꣣ना꣢꣫ त्वं यन्मा꣣तॄ꣡रज꣢꣯गन्न꣣पः꣢ । न꣡ तत्ते꣢꣯ अग्ने प्र꣣मृ꣡षे꣢ नि꣣व꣡र्त꣢नं꣣ य꣢द्दू꣣रे꣢꣫ सन्नि꣣हा꣡भुवः꣢ ॥५३॥
स्वर सहित पद पाठका꣡य꣢꣯मानः । व꣣ना꣢ । त्वम् । यत् । मा꣣तॄः꣢ । अ꣡ज꣢꣯गन् । अ꣣पः꣢ । न । तत् । ते꣣ । अग्ने । प्रमृ꣡षे꣢ । प्र꣣ । मृ꣡षे꣢꣯ । नि꣣ । व꣡र्त्त꣢꣯नम् । यत् । दू꣣रे꣢ । दुः꣣ । ए꣢ । सन् । इ꣣ह꣢ । अ꣡भु꣢꣯वः ॥५३॥
स्वर रहित मन्त्र
कायमानो वना त्वं यन्मातॄरजगन्नपः । न तत्ते अग्ने प्रमृषे निवर्तनं यद्दूरे सन्निहाभुवः ॥५३॥
स्वर रहित पद पाठ
कायमानः । वना । त्वम् । यत् । मातॄः । अजगन् । अपः । न । तत् । ते । अग्ने । प्रमृषे । प्र । मृषे । नि । वर्त्तनम् । यत् । दूरे । दुः । ए । सन् । इह । अभुवः ॥५३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 53
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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विषय - परमात्मा रूप अग्नि को अपने हृदय में प्रदीप्त करना चाहता हुआ मनुष्य कह रहा है।
पदार्थ -
हे (अग्ने) प्रकाशक परमात्मारूप अग्नि ! (त्वम्) आप (वना) अपनी तेज की किरणों को (कायमानः) प्रकट करना चाहते हुए अर्थात् स्वयं हमारे आत्मा, मन, बुद्धि आदि में प्रज्वलित होना चाहते हुए भी (यत्) जो (मातॄः अपः) मातृभूत जलों में (अजगन्) प्रविष्ट हो अर्थात् जलों से अग्नि के समान शान्त हुए पड़े हो, (तत्) वह (ते) आपकी (निवर्तनम्) निवृत्ति अर्थात् मेरे प्रति उदासीनता को, मैं (न) नहीं (प्रमृष्ये) सह सकता हूँ, (यत्) क्योंकि (दूरे सन्) इस समय दूर होते हुए भी आप, पहले (इह) यहाँ मेरे समीप (अभुवः) रह चुके हो। पहले के समान अब भी आपकी तेजोरश्मियाँ मेरे अन्दर क्यों नहीं प्रकाशित होतीं? ॥९॥ इस मन्त्र में प्रदीप्त होना चाहते हुए भी प्रदीप्त नहीं हो रहे हो, प्रत्युत शान्त हो गये हो यहाँ कारण विद्यमान होने पर भी कार्य का उत्पन्न न होना रूप विशेषोक्ति अलङ्कार है। दूर होते हुए यहाँ विद्यमान हो में विरोधालङ्कार व्यङ्ग्य है, व्याख्यात प्रकार से विरोध का परिहार हो जाता है ॥९॥
भावार्थ - जो परमात्मा का साक्षात्कार कर चुका है ऐसा मनुष्य असावधानी के कारण उसे भूल जाने पर अपने उद्गार प्रकट कर रहा है—हे देव ! पहले आप सदा ही मेरे आत्मा, मन, बुद्धि आदि में प्रदीप्त रहते थे। पर अब दुःख है कि जलों से बुझे भौतिक अग्नि के समान शान्त हो गये हो। आपकी मेरे प्रति इस उदासीनता को मैं नहीं सह सकता हूँ। कृपा करके प्रसुप्तावस्था को छोड़कर पहले के समान मेरे अन्दर प्रदीप्त होवो ॥९॥
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