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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 564
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣣ञ्ज꣢ते꣣꣬ व्य꣢꣯ञ्जते꣣ स꣡म꣢ञ्जते꣣ क्र꣡तु꣢ꣳ रिहन्ति꣣ म꣢ध्वा꣣꣬भ्य꣢꣯ञ्जते । सि꣡न्धो꣢रुऽच्छ्वा꣣से꣢ प꣣त꣡य꣢न्तमु꣣क्ष꣡ण꣢ꣳ हिरण्यपा꣣वाः꣢ प꣣शु꣢म꣣प्सु꣡ गृ꣢भ्णते ॥५६४॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ञ्ज꣡ते꣢ । वि । अ꣣ञ्जते । स꣢म् । अ꣣ञ्जते । क्र꣡तु꣢꣯म् । रि꣣हन्ति । म꣡ध्वा꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । अ꣣ञ्जते । सि꣡न्धोः꣢꣯ । उ꣣च्छ्वासे꣢ । उ꣣त् । श्वासे꣢ । प꣣त꣡य꣢न्तम् । उ꣣क्ष꣡ण꣢म् । हि꣣रण्यपावाः꣢ । हि꣣रण्य । पावाः꣢ । प꣣शु꣢म् । अ꣣प्सु꣢ । गृ꣣भ्णते ॥५६४॥


स्वर रहित मन्त्र

अञ्जते व्यञ्जते समञ्जते क्रतुꣳ रिहन्ति मध्वाभ्यञ्जते । सिन्धोरुऽच्छ्वासे पतयन्तमुक्षणꣳ हिरण्यपावाः पशुमप्सु गृभ्णते ॥५६४॥


स्वर रहित पद पाठ

अञ्जते । वि । अञ्जते । सम् । अञ्जते । क्रतुम् । रिहन्ति । मध्वा । अभि । अञ्जते । सिन्धोः । उच्छ्वासे । उत् । श्वासे । पतयन्तम् । उक्षणम् । हिरण्यपावाः । हिरण्य । पावाः । पशुम् । अप्सु । गृभ्णते ॥५६४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 564
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 11
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 9;
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पदार्थ -
उपासक लोग (क्रतुम्) कर्मवान् और प्रज्ञावान् परमात्मारूप सोम को (अञ्जते) अपने अन्दर व्यक्त करते हैं, (व्यञ्जते) विविध रूपों में व्यक्त करते हैं, (समञ्जते) उसके साथ संगम करते हैं, (रिहन्ति) उसका आस्वादन करते हैं, अर्थात् उससे प्राप्त आनन्दरस का पान करते हैं, (मध्वा) मधुर श्रद्धारस से (अभ्यञ्जते) उसे मानो लिप्त कर देते हैं। (सिन्धोः) आनन्दसागर के (उच्छ्वासे) तरङ्ग-समूह में (पतयन्तम्) मानो झूला झूलते हुए, (उक्षणम्) अपने सखाओं को भी आनन्द की लहरों से सींचते हुए (पशुम्) सर्वद्रष्टा तथा सबको दृष्टि प्रदान करनेवाले परमेश्वर को (हिरण्यपावाः) ज्योति, सत्य और आनन्दामृत से स्वयं को पवित्र करनेवाले वे विद्वान् जन (अप्सु) अपने प्राणों में (गृभ्णते) ग्रहण कर लेते हैं ॥११॥ इस मन्त्र में ‘ञ्जते’ इस अर्थहीन शब्दांश की अनेक बार आवृत्ति होने से यमकालङ्कार है। अञ्जते, व्यञ्जते, समञ्जते, रिहन्ति, अभ्यञ्जते, गृभ्णते इन अनेक क्रियाओं का एक कारक से योग होने के कारण दीपक अलङ्कार है। ‘समुद्र के उच्छ्वास में उड़ते हुए बैल को जलों में गोता लगवाते हैं, और चिकना करते हैं’ इस वाच्यार्थ के भी प्रतीत होने से प्रहेलिकालङ्कार भी है। ‘अभ्यञ्जते (मानो लिप्त करते हैं) पतयन्तम् (मानो झूला झूलते हुए) में गम्योत्प्रेक्षा है। समुद्र अचेतन होने से उच्छ्वास नहीं छोड़ता अतः उच्छ्वास की तरङ्गसमूह में लक्षणा है, तरङ्गों का ऊर्ध्वगमन व्यङ्ग्य है ॥११॥

भावार्थ - परमेश्वर के उपासक योगी जन उसे हृदय में अभिव्यक्त करके भक्तिरस से मानो स्नान कराकर जब अपने प्राणों का अङ्ग बना लेते हैं, तभी उनकी उपासना सफल होती है ॥११॥

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