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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 571
ऋषिः - मनुराप्सवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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प꣡व꣢स्व दे꣣व꣡वी꣢तय꣣ इ꣢न्दो꣣ धा꣡रा꣢भि꣣रो꣡ज꣢सा । आ꣢ क꣣ल꣢शं꣣ म꣡धु꣢मान्त्सोम नः सदः ॥५७१॥

स्वर सहित पद पाठ

प꣡व꣢꣯स्व । दे꣣व꣡वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣣तये । इ꣡न्दो꣢꣯ । धा꣡रा꣢꣯भिः । ओ꣡ज꣢꣯सा । आ । क꣣ल꣡श꣢म् । म꣡धु꣢꣯मान् । सो꣣म । नः । सदः ॥५७१॥


स्वर रहित मन्त्र

पवस्व देववीतय इन्दो धाराभिरोजसा । आ कलशं मधुमान्त्सोम नः सदः ॥५७१॥


स्वर रहित पद पाठ

पवस्व । देववीतये । देव । वीतये । इन्दो । धाराभिः । ओजसा । आ । कलशम् । मधुमान् । सोम । नः । सदः ॥५७१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 571
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 10;
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पदार्थ -
हे (इन्दो) आनन्दरस से भिगोनेवाले रसागार परमात्मन् ! आप (देवतीतये) दिव्यगुणों की उत्पत्ति के लिए (धाराभिः) धाराओं के साथ (ओजसा) वेग से (पवस्व) हमारे अन्तः करण में झरो। हे (सोम) जगदीश्वर ! (मधुमान्) मधुर आनन्द से परिपूर्ण आप (नः) हमारे (कलशम्) कलाओं से पूर्ण आत्मा में (आ सदः) आकर स्थित होओ ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेष से भौतिकसोम-परक अर्थ भी ग्राह्य होता है। उससे भौतिक सोम तथा परमात्मा का उपमानोपमेयभाव सूचित होता है। अतः उपनाध्वनि है ॥६॥

भावार्थ - जैसे सोम ओषधि का रस धाराओं के साथ द्रोणकलश में आता है, वैसे ही मधुर ब्रह्मानन्दरस आत्मा में आये ॥६॥

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